अद्वैतवादी मानते हैं कि जीवन्मुक्त की अवस्था आने के पश्चात व्यक्ति केवल प्रारब्ध के कर्म क्षय तक संसार में जीता है। न कोई रूचि न लगाव न कोई सांसारिक प्रयोजन होता है। उसमें कोई क्रिया नहीं होती वह सांसरिक निष्क्रिय हो जाता है। काश्मीर वेदांती मानते हैं कि जीवनमुक्ति पूर्ण सक्रियता की अवस्था है। काश्मीर मत में क्रिया या स्पन्द आत्मिक है सो जीवन्मुक्त होने का अर्थ स्वाभाविक रूप से क्रियाशील हो जाना है। वह सांसारिक कार्य करता है , पर लीला कार्य या स्पन्द कार्य है जैसे।
काश्मीर मत कि ये विशेषता है कि आत्मा प्राप्ति या जीवनमुक्ति के उपरान्त भी आत्मा (जिसकी प्राप्ति जीवनमुक्ति के बाद हुई ) जगत से कटती (isolate) नहीं वरन जगत में समाहित होती हो जाती है। जीवन मुक्त व्यक्ति जान लेता है सब में मैं और मुझमें सब हैं और सारा संसार मेरा ही वैभव है। ईश्वरप्रत्यभिज्ञा दर्शिनी में अभिनवगुप्त कहते हैं :
सर्वो ममायं विभव इत्येवं परिजानतः ।
विश्वात्मनो विकल्पानां प्रसरेऽपि महेशता॥
जीवन्मुक्त सारे संसार में एकत्व समझता है। पूर्णतः विश्वप्रेम में रहता है। जगत बंधन नहीं बल्कि जगत को अपने से भिन्न समझना बंधन है।
जीवन्मुक्त व्यक्ति संसार के भोगों को भी अपने स्वरुप के लीला विलास के रूप में लेता है। वह संसारिक भोगों में भी अपने स्वरुप को ही भोगता है। जगत का आनंद उसका स्वरूपानंद का ही स्फुरण है। भोगों को जब कामना की पूर्ति या स्वार्थपूर्ण प्राप्ति के लिए करते हैं तब बंधन है और जब भोग आनंद के स्पन्द के रूप में हो तब बंधन नहीं करता वरन आनंद उदात्त होता है। भोग बंधन नहीं अपितु स्वार्थ और अहंकार है। तंत्र इसे सूर्य और अग्नि के दृष्टांत से समझाया गया है। जैसे सूर्य सारी गन्दगी सोखकर भी और अग्नि सारी गंदगी जलाकर भी दूषित नहीं होते उसी प्रकार एक योगी ( जीवन्मुक्त) सभी भोगों को भोग कर भी पाप से निर्लिप्त रहता है:
सर्वशोषी यथा सूर्यः सर्वभोगी यथाSनल:।
योगी भुक्त्वाखिलान् भोगान् तथा पापैर्न लिप्यते।।
(कुलार्णव तंत्र)
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