Friday, March 8, 2024

भरत चरित्र - १

 विरह भक्ति की प्रतिष्ठा है, भक्त जब अपने प्रियतम भगवान की प्रतीक्षा में जो आंसू बहाता है वही है पराकाष्ठा भक्ति की।

मीरा बाई के पदों में प्रभु से अलगाव की व्यथा, वियोग में भक्त की स्थिति स्पष्ठ कर देता है।
मीरा कहती हैं :दर्शन के बिना आँखें दुखने लगी हैं। मेरे प्रिय! जबसे तुम बिछुड़े हो, कभी चैन नहीं मिला। तुम्हारा नाम सुनकर दिल काँप उठता है और फ़रियाद मीठी लगती है। टकटकी बाँधे तुम्हारी राह देख रही हूँ। वियोग की रात सबसे लंबी होती है। मेरी सजनी! आख़िर विरह का दु:ख किसको सुनाऊँ? मीरा के प्रभु कब मिलोगे? कब दु:ख मिटाओगे और कब सुख दोगे!

दरस बिन दूखन लागे नैन।
जब तें तुम बिछुरे पिव प्यारे, कबहुँ न पायो चैन॥
सबद सुनत मेरी छतियाँ काँपै, मीठे लागें बैन।
एक टकटकी पंथ निहारूँ भई छंमासी रैन॥
बिरह बिथा कासों कहुँ सजनी, बह गई करवत ऐन।
मीरां के प्रभु कबहो मिलोगे, दुःख मेटन सुख दैन॥
(मीरा माधव)

विरह अंत: करण का विशुद्ध भाव है।  विह्वल हृदय का क्रंदन सदा निर्मल और करुण होता है। अपने आराध्य से विरह की तड़प क्या न करवा देती है , यह भरत के शब्दों से ज्ञात हो जाता है।  जब भरत जी को भान होता है कि राम सीता और लक्ष्मण संग १४ वर्ष के वनवास पर चले गए।  उनको विश्वास न हुआ, मानो उनका सारा शरीर निर्जीव हो गया।  जब चेतना लौटी,  व्यथित हो जमीन पर गिरे और माँ कैकेयी को बहुत कठोर शब्दों से  धिक्कार दिया :

जननी मैं न जीऊँ बिन राम,
राम लखन सिया वन को सिधाये गमन,
पिता राउ गये सुर धाम,
जननी मैं न जीऊँ बिन राम।

कुटिल कुबुद्धि कैकेय नंदिनि,
बसिये न वाके ग्राम,
जननी मैं न जीऊँ बिन राम।।
(विनय पत्रिका)

श्री भरत जी राम विरह भक्ति के परम आचार्य हैं।भागवत में जो गोपियों का भाव है, बिल्कुल वही श्री भरत जी का है।
जहाँ गोपियों ने उद्धव को भ्रमर कह कटाक्ष किया वहीं भरत राम वियोग में बेसुद्ध हो अपनी जननी को भला बुरा कह देते हैं।  

भक्त अपने प्रभु की भक्ति में सदैव एकाकार रहता है, उनका अलगाव उसे उद्विग्न कर देता है , भला शब्दों की सीमा कहाँ बांधेगी इस असीम विरह वेदना को।  

 जो राम ने ठुकरा दिया वह भला भरत कहाँ स्वीकारते। अपने आराध्य से दूरी भरत को कहाँ रास आती। बिना रथ पर आरूढ़ हो जब नंगे पैर भरत राम से मिले, तब उनके कोमल पैर में छाले हो गए।  यह छाले उनके चरणों में कैसे चमकते हैं, जैसे कमल की कली पर ओस की बूँदें चमकती हों।

झलका झलकत पायन्ह कैसें। पंकज कोस ओस कन जैसें॥
भरत पयादेहिं आए आजू। भयउ दुखित सुनि सकल समाजू॥

भला इससे सुन्दर और क्या अभिव्यक्ति होगी प्रेम की। आराध्य के प्रति निश्छल, अनन्य, निस्वार्थ और प्रगाढ़ प्रेम इससे अधिक और क्या होगा ?

प्रेम अमृत है, विरह मंदराचल पर्वत है, भरतजी गहरे समुद्र हैं। कृपा के समुद्र श्री रामचन्द्रजी ने देवता और साधुओं के हित के लिए स्वयं (इस भरत रूपी गहरे समुद्र को अपने विरह रूपी मंदराचल से) मथकर यह प्रेम रूपी अमृत प्रकट किया है॥

प्रेम अमिअ मंदरु बिरहु भरत पयोधि गँभीर।
मथि प्रकटेउ सुर साधु हित कृपासिंधु रघुबीर।।




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