स्पंदन
Saturday, March 16, 2024
सूर परिचय -१
Friday, March 15, 2024
शैव अद्वैत भूमिका - ६ (जीवन्मुक्ति)
अद्वैतवादी मानते हैं कि जीवन्मुक्त की अवस्था आने के पश्चात व्यक्ति केवल प्रारब्ध के कर्म क्षय तक संसार में जीता है। न कोई रूचि न लगाव न कोई सांसारिक प्रयोजन होता है। उसमें कोई क्रिया नहीं होती वह सांसरिक निष्क्रिय हो जाता है। काश्मीर वेदांती मानते हैं कि जीवनमुक्ति पूर्ण सक्रियता की अवस्था है। काश्मीर मत में क्रिया या स्पन्द आत्मिक है सो जीवन्मुक्त होने का अर्थ स्वाभाविक रूप से क्रियाशील हो जाना है। वह सांसारिक कार्य करता है , पर लीला कार्य या स्पन्द कार्य है जैसे।
काश्मीर मत कि ये विशेषता है कि आत्मा प्राप्ति या जीवनमुक्ति के उपरान्त भी आत्मा (जिसकी प्राप्ति जीवनमुक्ति के बाद हुई ) जगत से कटती (isolate) नहीं वरन जगत में समाहित होती हो जाती है। जीवन मुक्त व्यक्ति जान लेता है सब में मैं और मुझमें सब हैं और सारा संसार मेरा ही वैभव है। ईश्वरप्रत्यभिज्ञा दर्शिनी में अभिनवगुप्त कहते हैं :
सर्वो ममायं विभव इत्येवं परिजानतः ।
विश्वात्मनो विकल्पानां प्रसरेऽपि महेशता॥
जीवन्मुक्त सारे संसार में एकत्व समझता है। पूर्णतः विश्वप्रेम में रहता है। जगत बंधन नहीं बल्कि जगत को अपने से भिन्न समझना बंधन है।
जीवन्मुक्त व्यक्ति संसार के भोगों को भी अपने स्वरुप के लीला विलास के रूप में लेता है। वह संसारिक भोगों में भी अपने स्वरुप को ही भोगता है। जगत का आनंद उसका स्वरूपानंद का ही स्फुरण है। भोगों को जब कामना की पूर्ति या स्वार्थपूर्ण प्राप्ति के लिए करते हैं तब बंधन है और जब भोग आनंद के स्पन्द के रूप में हो तब बंधन नहीं करता वरन आनंद उदात्त होता है। भोग बंधन नहीं अपितु स्वार्थ और अहंकार है। तंत्र इसे सूर्य और अग्नि के दृष्टांत से समझाया गया है। जैसे सूर्य सारी गन्दगी सोखकर भी और अग्नि सारी गंदगी जलाकर भी दूषित नहीं होते उसी प्रकार एक योगी ( जीवन्मुक्त) सभी भोगों को भोग कर भी पाप से निर्लिप्त रहता है:
सर्वशोषी यथा सूर्यः सर्वभोगी यथाSनल:।
योगी भुक्त्वाखिलान् भोगान् तथा पापैर्न लिप्यते।।
(कुलार्णव तंत्र)
Thursday, March 14, 2024
शैव अद्वैत भूमिका - ४ (प्रत्यभिज्ञा)
जीवन और जगत के लिए कार्य खिलवाड़ (लीला ) है तो उसमें सार्थकता नष्ट नहीं हो जाती है ? कोई काम भी ठीक से नहीं हो पायेगा।
आइये इसको ऐसे समझते हैं :
अगर आनंद से सारे काम किये जाएँ तो वे कुशलता से संपन्न हो जाते हैं क्योंकि आत्मा में व्याप्त क्रिया शक्ति निर्बाध हो जाती है | वहीं तनाव में काम में अवरोध (inhibition) होता है | जब कोई सृजन आनंद से स्पंदित ( when it evolves with spontaneity) होता है तब रचना बहुत सुंदर लगती है वहीं जब चेतना पर जोर ( strain) से कार्य या रचना करें तो उस सृजन में सुंदरता नहीं जान पड़ती | अवतार या जीवन्मुक्त बड़े बड़े कार्य कुशलता से इसलिए कर पाते हैं क्योंकि वे आनंद की स्थिति में लीला करते हैं | सो वहाँ स्पंद् सहसा प्रतीत होता है | लीलाधर योग की सहज समाधि की स्थिति में रहते हैं | इस स्थिति में किये गए कार्य आनंद क्रीडन होते हैं और पूर्णतया सक्षम होते हैं | योगेश्वर कृष्ण ने पूरी गीता सहज समाधि में कही |
अब विचार आता है अगर सृष्टि शिव का आनंद क्रीडन है तो सांसारिक दुख और पाप क्या हैं? क्या शिव इनके लिए उत्तरदायी हैं ?
इसे फुटबॉल के खेल के दृष्टान्त से समझते हैं। खेल का प्रवर्तन इस भाव से हुआ कि सारे खिलाड़ी आनंद से खेलें और कोई गड़बड़ी न करें। परन्तु सब रोबोट तो नहीं सबका इच्छा स्वातंत्र्य है। अगर कोई इस इच्छा स्वातंत्र्य के अधीन हो कर फ़ाउल करता है तो रेफ़री रेड कार्ड या येलो कार्ड दिखा कर दण्डित करता है।
उसी प्रकार यह सृष्टि का खेल शिव ने चलाया है उसमें अन्य खिलाडियों ( जीव ) को उन्होंने लगा रखा है। ऐसा कह सकते हैं कि जीवों में कुछ हद तक इच्छा स्वातंत्र्य है अन्यथा उसका स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त ही हो जाएगा। शिव नहीं चाहते कि कोई अपराध करे पर जीव इच्छा स्वातंत्र्य के अधीन गलत कर्म करते हैं जिसके फल स्वरुप उन्हें दंड भी मिलता है।
शिव ने जीवों के सुधार के लिए और सृष्टि खेल को समुचित रूप से चलाने के लिए कर्म नियम के अनुसार दंड विधान को भी लागू किया है और यह भी सृष्टि खेल का ही अंग है।
क्रिया काश्मीर शैव दर्शन का मूल सिध्दांत है तो प्रत्यभिज्ञा उसका मूल लक्ष्य। आगम परिचय कराते हैं कि हम शिव ही हैं , बस मलावरण के कारण हम अपना स्वरुप भूल ही जाते हैं। मलावरण हटते ही अपनी स्वयं की वास्तविक पहचान हो जाती है। इसे ही प्रत्यभिज्ञा कहा जाता है। यह समझना होगा कि मलावरण अज्ञान मूलक है तथापि आत्मप्राप्ति ज्ञान से ही होगी।
"हम हैं" यह तो सपष्ट है ! कर्त्ता और ज्ञाता के रूप में हमारी सत्ता स्वतः सिद्ध है , सभी ज्ञान और क्रिया के रूप में हम पहले से ही हैं , हम आदिसिद्ध हैं परन्तु हम अपना वास्तविक परिचय भूल गए हैं ! अभिनवगुप्त ने ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी में यही बताया है कि :
कर्तरि ज्ञातरि स्वात्मन्यादिसिद्धे महेश्वरे ।
अजडात्मा निषेधं वा सिद्धिं वा विदधीत कः ॥
किन्तु माया के अधीन होने से स्वयं का दर्शन ( प्रत्यभिज्ञा) नहीं हो पाती। शक्ति प्रदर्शन के माध्यम से ही ये प्रत्यभिज्ञा जान पड़ती है ।
किं तु मोहवशादस्मिन्दृष्टेऽप्यनुपलक्षिते।
शक्त्याविष्करणेनेयं प्रत्यभिज्ञोपदर्श्यते॥
यहाँ उल्लेखनीय है कि तंत्र शास्त्र में पौरुष अज्ञान ( पौरुष ज्ञान ) और बौद्ध अज्ञान ( बौद्ध ज्ञान) में भेद है। समस्त भारतीय दर्शन का प्रायः ये मत रहा है कि ज्ञान मुक्ति का और अज्ञान बंधन का कारक है। परन्तु ज्ञान बौद्धिक ( intellect) समझ नहीं होती। इस हिसाब से बौद्धिक जानकारी से मोक्ष न मिल जाए ? और शास्त्र ज्ञान से मुक्ति ?
तंत्र में इसे समझने के लिए पौरुष ज्ञान की अवधारणा मिलती है। ज्ञान केवल बौद्धिक नहीं , बौद्धिक ज्ञान बौद्धिक अज्ञान दूर कर सकता है। परन्तु वह अज्ञान जो हमारी प्रत्यभिज्ञा में बाधक है , स्वरुप समझने में अवरोध है वह बौद्धिक अज्ञान नहीं वरन आध्यात्मिक मल है। आध्यात्मिक मल ने ही समूचे पुरुष को जकड़ रखा है , यही पौरुष अज्ञान है : जिसकी निवृत्ति साधना से होती है। अर्थात् साधना से जो आध्यात्मिक प्रकाश उत्पन्न होता है वही पौरुष ज्ञान है। अतः मूल समस्या पौरुष अज्ञान है।
Wednesday, March 13, 2024
शैव अद्वैत भूमिका -३ (क्रिया सिद्धांत)
काश्मीर शैव दर्शन एक आगामिक दर्शन है जिसमें उपनिषद् में उल्लिखित स्पंद अवधारणा और अद्वैत वेदांत का समन्वय मिलता है | क्रिया की अवधारणा इस दर्शन की मुख्य विशेषता है | शिव परम चैतन्य हैं जो ज्ञान ही नहीं अपितु क्रिया भी हैं। शिव की क्रियाशीलता ही शक्ति हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि परम चैतन्य की अवधारणा में शिव-शक्ति , प्रकाश -विमर्श, ज्ञान क्रिया का संनिवेश है । जैसे जल धारा में जल और धरा दो तत्त्व नहीं , जल का बहना ही धारा है उसी प्रकार शिव शक्ति अविभाज्य हैं और एक ही तत्त्व हैं। क्रियाशील शिव = शक्ति, इस अवधारणा का प्रतीकात्मक स्वरूप ही अर्धनारीश्वर हैं | शिव और भगवती पार्वती एक ही हैं।
क्रिया सिद्धांत में कहा जाता है कि शिव में आत्म चेतना है या अहं विमर्श है। क्रिया ही इस आत्मचेतना (self conciousness) का कारण हैं। अहम् विमर्श चैतन्य की नित्य क्रिया या नित्य स्पन्द है। चैतन्य (शिव) कभी भी आत्मा चेतना (पार्वती) से विरहित नहीं हो सकता है। काश्मीर वेदांत मत से सोचें तो अद्वैत दर्शन का ब्रह्म जड़ जान पड़ता है। क्रिया से ही सृष्टि का सर्जन होता है। शिव किसी पूर्ती के लिए या प्रयोजन से नहीं बल्कि जब आनंद स्पंदित होता है तब स्वाभाविक ही सृष्टि क्रिया करते हैं। यह शिव की विवशता (compulsion or necessity) नहीं है वरन एक स्वांत्र्य है , लीला विलास है : साधारण भाषा में शिव सृष्टि क्रिया के रूप में नृत्य करते है खेल खेलते हैं| सृष्टि क्रिया प्रतीकात्मक रूप से नटराज है।
शिव का सृष्टि क्रिया करना लीला विलास है या खेल है इसमें गाम्भीर्य का नितांत अभाव प्रतीत होता है। क्या शिव सार्थक और गंभीर कार्य करने के बजाये बच्चों जैसा खिलवाड़ करते हैं ?
मनोवैज्ञानिक रूप से विश्लेषण करें तो तथाकथित गंभीर कार्य या "सार्थक क्रिया " अहंकार से उत्थित एक प्रकार की आत्मा प्रपंचना (self-deception )है। अन्ततोगत्वा कार्य मात्र कार्य के लिए नहीं किसी न किसी लाभ के लिए ही तो किया जाएगा और अंतिम लाभ तो आनंद या आत्मा तृप्ति है।
मनोचिकित्सीय दृष्टि से सोचें तो आनंद से किया कार्य स्वास्थय मूलक है। जब कार्य प्रयोजन वश होता है तो तनाव को जन्म देता है वहीँ आनंद में किया गए कार्य में हम स्वस्थ होते है : स्व में स्थित रहते हैं और विश्रांति (relaxation) महसूस करते हैं। शिव चैतन्य पूर्ण विश्रांति की अवस्था है उसे मानसिक स्वास्थय की आदर्श अवस्था कहा जा सकता है।
यहां एक और पक्ष समझना होगा कि जब हम आनंद से कोई काम करते हैं तो दूसरों में विश्रांति लाते हैं वहीँ हमारा तनावपूर्ण कार्य दूसरों में तनाव आरोपित करता है। शिशु जब किलकारी ( आनंद ) करता है तो दूसरे भी आनंदित होते है जब कोई कलात्मक सृजन होता है तो सबसे में आनंद प्रवाहित करता है। प्रेम विश्रांति की स्थिति है और दूसरों में भी विश्रांति लाती है। क्रोध घृणा से किया हुआ कार्य दूसरों में तनाव उत्पन्न करता है। तात्पर्य यह हुआ कि आनंद से कार्य से ही जगत का कल्याण ही होगा। सनातन में अवतार के लिए भी यही कही गयी है कि वे लीला करते हैं और कल्याण करते हैं। यह बात परस्पर विरोधी लगती हैं पर यह दोनों ही सत्य है : अवतार आनंद के लिए लीला करते हैं किन्तु जगत के लिए वह सहज ही उपकारी हो जाती है।
अब प्रश्न यह उठता है कि जीवन और जगत के लिए कार्य खिलवाड़ (लीला ) है तो उसमें सार्थकता नष्ट नहीं हो जाती है ?
Tuesday, March 12, 2024
शैव अद्वैत भूमिका - २ (स्पन्द)
शांकर अद्वैतवाद में परमब्रह्म को अद्वितीय ऐसा माना गया है, इस कारण उनकी आत्मचेतना हो ऐसा भाव द्वैत परक है। जब ब्रह्म को पूर्व मान्य माना है, तो निष्कर्ष निस्संदेह ही निषेधात्मक होगा। अद्वैत में कर्म को क्रिया माना गया है। क्रियाशीलता अपूर्णता की द्योतक है। साधारणतया जब कोई कमी होती है उसे ही पूर्ण करना क्रिया (कर्म) को जन्म देता है। इसी कारण अद्वैतवादी मत में ब्रह्म को निष्क्रिय बताया गया है !
ब्रह्म में सृष्टि क्रिया नहीं मानी जा सकती। चूंकि क्रियाशीलता ब्रह्म की अपूर्णता को सिद्ध कर देगी। तथापि उन औपनिषदीय व्याख्या जिसमें ब्रह्म को सृष्टि कर्त्ता बताया है वहां शांकर मत है कि उसे कहानी (आख्यायिका) के तौर पर मानना सर्वथा उचित होगा।
शैव अद्वैत - १ (भूमिका)
इस श्रृंखला का उद्देश्य काश्मीर शैव दर्शन की जितनी मेरी समझ उसे मैं साझा करूँ।
सर्वप्रथम गुरु परंपरा को नमन
शंकरं शंकराचार्यं केशवं बादरायणम् ।
सूत्रभाष्यकृतौ बन्दे भगवन्तौ पुनः पुनः ॥
शंकराचार्य द्वारा प्रदत्त अद्वैत दर्शन मानता है ब्रह्म निष्क्रिय है, न भोक्ता है न कर्ता, वह सबसे परे हैं। भगवद्पाद आदि शंकराचार्य जी जब आठ वर्ष के थे तब संन्यास मार्ग में प्रवृत हो गए थे। हिमालय में शंकराचार्य जी से स्वामी गोविंदपाद जी मिले, तब उनसे पूछा, "तुम कौन हो ?"
तब बालक शंकराचार्य ने उत्तर दिया, न मैं मन हूं, न बुद्धि, न अहंकार, न ही चित्त, न कान, न जीभ, न नासिका, न ही नेत्र, न तो आकाश हूं, न धरती, न अग्नि, न ही वायु हूं। मैं न प्राण हूं, न ही पंच वायु हूं, मैं न सात धातु हूं, और न ही पांच कोश हूं। न मुझे घृणा है, न लगाव है, न मुझे लोभ है, और न मोह, न मुझे अभिमान है, न ईर्ष्या, मैं धर्म,धन, काम एवं मोक्ष से परे हूं। मैं पुण्य, पाप, सुख और दुख से विलग हूं, मैं न मंत्र हूं, न तीर्थ, न ज्ञान, न ही यज्ञ न मैं भोजन(भोगने की वस्तु) हूं, न ही भोग का अनुभव, और न ही भोक्ता हूँ। न मुझे मृत्यु का डर है, न जाति का भेदभाव मेरा न कोई पिता है, न माता, न ही मैं कभी जन्मा था, मेरा न कोई भाई है, न मित्र, न गुरू, न शिष्य,मैं निर्विकल्प हूं, निराकार हूं, मैं चैतन्य के रूप में सब जगह व्याप्त हूं, सभी इन्द्रियों में हूं, न मुझे किसी चीज में आसक्ति है, न ही मैं उससे मुक्त हूं।
मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
मनोबुद्धयहंकारचित्तानि नाहम् न च श्रोत्र जिह्वे न च घ्राण नेत्रे
न च व्योम भूमिर्न तेजॊ न वायु: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥1॥
न च प्राण संज्ञो न वै पञ्चवायु: न वा सप्तधातुर्न वा पञ्चकोश:
न वाक्पाणिपादौ न चोपस्थपायू चिदानन्द रूप:शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥2॥
न मे द्वेष रागौ न मे लोभ मोहौ मदो नैव मे नैव मात्सर्य भाव:
न धर्मो न चार्थो न कामो ना मोक्ष: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥3॥
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खम् न मन्त्रो न तीर्थं न वेदार् न यज्ञा:
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता चिदानन्द रूप:शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥4॥
न मे मृत्यु शंका न मे जातिभेद:पिता नैव मे नैव माता न जन्म:
न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्य: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥5॥
अहं निर्विकल्पॊ निराकार रूपॊ विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्
न चासंगतं नैव मुक्तिर्न मेय: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥6॥
इस प्रकार वे नेति नेति द्वारा ब्रह्म को उद्घोषित कर देते हैं और जीव और ब्रह्म का एकत्व बता देते हैं।
शंकराचार्य निरालम्बोपनिषद (वेदान्तो नामोपनिषद् प्रमाणम्) से प्रमाण देते हैं और ब्रह्मज्ञान वल्ली माला में उद्धृत करते हैं कि ब्रह्म वास्तविक है, ब्रह्मांड मिथ्या है । जीव ही ब्रह्म है और भिन्न नहीं। इसे सही शास्त्र के रूप में समझा जाना चाहिए। यह वेदांत द्वारा घोषित किया गया है।
ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः ।
अनेन वेद्यं सच्छास्त्रमिति वेदान्तडिण्डिमः ॥
एक जो भ्रम है : कि अद्वैत का अर्थ ब्रह्म को पाना। जो निष्क्रिय है , न भोक्ता है ऐसे में उसको पाना इसे समझ पाना बुद्धि से परे है। ब्रह्म को इसलिए अनिर्वचनीय बताया गया है और ब्रह्म को समझने के लिए उपनिषद्कार नेति नेति के तरीके को अपनाते हैं। यह समझना नितांत आवश्यक है कि अद्वैत का निष्कर्ष ब्रह्म को पाना नहीं परन्तु अविद्या (माया) को हटाना है।
ब्रह्म सर्वत्र व्यापत है : तस्य भासा इदं सर्वं भाति। वस्तुतः ब्रह्म निष्क्रिय है और सारी सृष्टि माया है, यह अविद्या है जो आक्षिप्त है ब्रह्म पर।हमारा वास्तविक स्वरुप क्या है ? यह जानना अर्थात अविद्याकृत संसार के परदे को फाड़ फेंकना। ब्रह्म तो पूर्व प्राप्त है , ज़रुरत है अविद्या के उन्मूलन की जो ज्ञान से प्राप्त हो पायेगा। शांकर अद्वैत दर्शन सुन्दर और अद्वितीय है परन्तु ब्रह्म को समझने का अद्वैत मार्ग काफी उदासीन बना देता है। अद्वैत मार्ग साधक को व्यक्तिवाद की पराकाष्ठा तक ले जाता है ।
शनैः शनैरुपरमेद् बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्।।
शनै: शनै: धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा (योगी) उपरामता (शांति) को प्राप्त होती जब मन को आत्मा में स्थित करके फिर अन्य कुछ भी चिन्तन न करें।
काश्मीर शैव मत भी अद्वैतवादी है। परन्तु यहाँ पूर्ण ब्रह्म शिव हैं। यहाँ आगम को प्रमाण माना है इसलिए यह तांत्रिक मत है इसलिए काफी गोपनीय भी। जहाँ अद्वैत एक निषेधात्मक दर्शन है और जगत को मिथ्या कहता है वहीँ कश्मीर शैव दर्शन ने जगत को मिथ्या नहीं बताया। यहाँ भोग और योग का प्रवृत्ति और निवृत्ति का समन्वय है। यह जगत और जागतिक मूल्यों के प्रति भावात्मक दृष्टिकोण देता है।
ऐसा बताया जाता है , स्वयं शिव भगवान् ने वसुगुप्त को स्वपन में शिव सूत्र दिया जिस पर यह शैवाद्वैत टिका हुआ है। इसे त्रिक दर्शन कहा गया है और त्रिक शास्त्र हैं : सिद्धतन्त्र, मालिनीतंत्र और तंत्रागम (वामागम)। काश्मीर शैवदर्शन में आचार्य अभिनवगुप्त को सर्वाधिक जाना जाता है। वे बहुत ही सुन्दर काव्य के रचनाकार थे , उनके छन्द और रसों का प्रयोग उन्हें साहित्य में भी विशिष्ठ स्थान दिलाता है।
(आगे आने वाली सारी पोस्ट की मुख्यतः पाठ्य सामग्री हैं : काश्मीर शैव दर्शन , मूल सिद्धांत, कैलाश पति मिश्र )
Monday, March 11, 2024
त्वदीयं वस्तु गोविन्दम् तुभ्यमेव समर्पय!
त्वदीयं वस्तु गोविन्दम् तुभ्यमेव समर्पय!
लगता है मानो जीवन विशाल सागर की भाँति है जिसमें क्षितिज का आभास तो है परन्तु किनारों का अभाव है इसी कारण उसके गर्भ में सदा ही काम , क्रोध , लोभ तथा मोह आदि विकारों की लहरें उठती रहती हैं तथा अनायास ही विध्वंस के लिए तत्पर रहती हैं | इन विनाशकारी लहरों पर विजय प्राप्त किए बिना ईश्वर के प्रति स्वयं को समर्पित समझना , समर्पण जैसे भाव के प्रति अज्ञानता है!
जहाँ सम्पूर्ण त्याग है वहीं समर्पण है |
प्रभु, इस सांसारिक जीव का मुक्ति की ओर बढ़ते पथ पर मिल जाए तुम्हारा आलंबन!