Wednesday, March 13, 2024

शैव अद्वैत भूमिका -३ (क्रिया सिद्धांत)




काश्मीर शैव दर्शन एक आगामिक दर्शन है जिसमें उपनिषद् में उल्लिखित स्पंद अवधारणा और अद्वैत वेदांत का समन्वय मिलता है | क्रिया की  अवधारणा इस दर्शन की मुख्य विशेषता है | शिव  परम चैतन्य हैं जो ज्ञान ही नहीं अपितु क्रिया भी हैं।  शिव की क्रियाशीलता ही शक्ति हैं।  इसका अर्थ यह हुआ कि परम चैतन्य की अवधारणा में शिव-शक्ति , प्रकाश -विमर्श, ज्ञान क्रिया का संनिवेश है । जैसे जल धारा में जल और धरा दो तत्त्व  नहीं , जल का बहना ही धारा है उसी प्रकार शिव शक्ति अविभाज्य हैं और एक ही तत्त्व हैं।  क्रियाशील शिव = शक्ति, इस अवधारणा का  प्रतीकात्मक स्वरूप ही अर्धनारीश्वर हैं | शिव और भगवती पार्वती एक ही हैं। 

क्रिया सिद्धांत में कहा जाता है कि शिव में आत्म चेतना है या अहं विमर्श है। क्रिया ही इस आत्मचेतना (self conciousness) का कारण हैं। अहम् विमर्श चैतन्य की नित्य क्रिया या नित्य स्पन्द है।  चैतन्य (शिव) कभी भी आत्मा चेतना (पार्वती) से विरहित नहीं हो सकता है।  काश्मीर वेदांत मत से सोचें तो अद्वैत दर्शन का ब्रह्म जड़ जान पड़ता है। क्रिया से ही सृष्टि का सर्जन होता है।  शिव किसी पूर्ती के लिए या प्रयोजन से नहीं बल्कि जब आनंद स्पंदित होता है तब स्वाभाविक ही सृष्टि क्रिया करते हैं।  यह शिव  की विवशता (compulsion or necessity) नहीं है वरन एक स्वांत्र्य है , लीला विलास है : साधारण भाषा में शिव सृष्टि क्रिया के रूप में नृत्य करते है खेल खेलते हैं| सृष्टि क्रिया प्रतीकात्मक रूप से नटराज है। 

 शिव का सृष्टि क्रिया करना लीला विलास है या खेल है इसमें गाम्भीर्य का नितांत अभाव प्रतीत होता है।  क्या शिव सार्थक और गंभीर कार्य करने के बजाये बच्चों जैसा खिलवाड़ करते हैं ? 


मनोवैज्ञानिक रूप से विश्लेषण करें तो तथाकथित गंभीर कार्य या "सार्थक क्रिया " अहंकार से उत्थित एक प्रकार की आत्मा प्रपंचना (self-deception )है। अन्ततोगत्वा कार्य मात्र कार्य के लिए नहीं किसी न किसी लाभ के लिए ही तो किया जाएगा और अंतिम लाभ तो आनंद या आत्मा तृप्ति है।


मनोचिकित्सीय दृष्टि से सोचें तो आनंद से किया कार्य स्वास्थय मूलक है।  जब कार्य प्रयोजन वश होता है तो तनाव को जन्म देता है वहीँ आनंद में किया गए कार्य में हम स्वस्थ होते है : स्व में स्थित रहते हैं और विश्रांति (relaxation) महसूस करते हैं।  शिव चैतन्य पूर्ण विश्रांति की अवस्था है उसे मानसिक स्वास्थय की आदर्श अवस्था कहा जा सकता है। 


यहां एक और पक्ष समझना होगा कि जब हम आनंद से कोई काम करते हैं तो दूसरों में विश्रांति लाते हैं वहीँ हमारा तनावपूर्ण कार्य दूसरों में तनाव आरोपित करता है।  शिशु जब किलकारी ( आनंद ) करता है तो दूसरे भी आनंदित होते है जब कोई कलात्मक सृजन होता है तो सबसे में आनंद प्रवाहित करता है।  प्रेम विश्रांति की स्थिति है और दूसरों में भी विश्रांति लाती है।  क्रोध घृणा से किया हुआ कार्य दूसरों में तनाव उत्पन्न करता है।  तात्पर्य यह हुआ कि आनंद से कार्य से ही जगत का कल्याण ही होगा।  सनातन में अवतार के लिए भी यही कही गयी है कि वे लीला करते हैं और कल्याण करते हैं। यह बात परस्पर विरोधी लगती हैं पर यह दोनों ही सत्य है : अवतार आनंद के लिए लीला करते हैं किन्तु जगत के लिए वह सहज ही उपकारी हो जाती है।  


अब प्रश्न यह उठता है कि जीवन और जगत के लिए कार्य खिलवाड़ (लीला ) है तो उसमें सार्थकता नष्ट नहीं हो जाती है ?   


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