Tuesday, March 12, 2024

शैव अद्वैत भूमिका - २ (स्पन्द)




शांकर अद्वैतवाद में परमब्रह्म को अद्वितीय ऐसा माना गया है, इस कारण उनकी आत्मचेतना हो ऐसा भाव द्वैत परक है। जब ब्रह्म को पूर्व मान्य माना है, तो निष्कर्ष निस्संदेह ही निषेधात्मक होगा। अद्वैत में कर्म को क्रिया माना गया है। क्रियाशीलता अपूर्णता की द्योतक है।  साधारणतया जब कोई कमी होती है उसे ही पूर्ण करना क्रिया (कर्म) को जन्म देता है।  इसी कारण अद्वैतवादी मत में ब्रह्म को निष्क्रिय बताया गया है ! 

ब्रह्म में सृष्टि क्रिया नहीं मानी जा सकती। चूंकि क्रियाशीलता ब्रह्म की अपूर्णता को सिद्ध कर देगी।  तथापि उन औपनिषदीय व्याख्या जिसमें ब्रह्म को सृष्टि कर्त्ता बताया है वहां शांकर मत है कि उसे कहानी (आख्यायिका) के तौर पर मानना सर्वथा उचित होगा।   

अद्वैतवाद में ब्रह्म निष्कर्मा है परन्तु यह तो उपनिषदकारों ने भी माना है कि ब्रह्म के आनंद "से " सृष्टि हुई है। 
देखिये इसे कुछ समझने का प्रयास करते हैं : निस्संदेह कर्म अपूर्णता से उदित होता है परन्तु ऐसी क्रियाएं है जो कमी से नहीं वस्तुत: आनंद से स्वाभाविक प्रस्फुटित हो जाती हैं।  जैसे बच्चे का किलकारी करना और साथ ही स्वतः हाथ पैर मारना आदि क्रिया अपूर्णता से नहीं वरन स्वभावतः ही पैदा होती हैं।  थोड़ी अपूर्णता भले ही हो परन्तु इस से स्पष्ट है कुछ क्रिया स्वतः ही प्रवाहित होती और इसे अपूर्णता कर द्योतक मानना कदाचित सही न होगा।  इसे ही तंत्र में स्पन्द, विमर्श, स्वातंत्र्य , स्फुरण आदि नामों से समझाया गया है। सृष्टि क्रिया शिव का स्पन्द है। सृष्टि क्रिया नटराज रुपी आनंद का द्योतक है।  यह कहना ठीक नहीं होगा कि शिव आनंद के लिए सृष्टि क्रिया करते किन्तु यह ज़्यादा सही होगा अगर यह कहा जाए की सृष्टि शिव के आनंद "से" है। शिशु आनंद के लिए खेलता है ऐसा नहीं वरन आनंद से खेलता है।  यह उपनिषद में भी प्रमाणित है कि सृष्टि ब्रह्म के आनंद से होती है : आनन्दाद्हि एव खलु इमानि भूतानि जायन्ते। इसका अर्थ यह लगाना सही होगा कि तंत्र में स्पन्द की अवधारणा औपनिषदीय ही है।  यही स्पन्द (spontaneity) इस दर्शन की एक प्रमुख कड़ी है। 

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