Monday, March 11, 2024

त्वदीयं वस्तु गोविन्दम् तुभ्यमेव समर्पय!

 त्वदीयं वस्तु गोविन्दम् तुभ्यमेव समर्पय!

लगता है मानो जीवन विशाल सागर की भाँति है जिसमें क्षितिज का आभास तो है परन्तु किनारों का अभाव है इसी कारण उसके गर्भ में सदा ही काम , क्रोध , लोभ तथा मोह आदि विकारों की लहरें उठती रहती हैं तथा अनायास ही विध्वंस के लिए तत्पर रहती हैं | इन विनाशकारी लहरों पर विजय प्राप्त किए बिना ईश्वर  के प्रति स्वयं को समर्पित समझना , समर्पण जैसे भाव के प्रति अज्ञानता है! 


जहाँ सम्पूर्ण त्याग है वहीं समर्पण है |


प्रभु, इस सांसारिक जीव का मुक्ति की ओर बढ़ते पथ पर मिल जाए तुम्हारा आलंबन!

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