Sunday, March 10, 2024

कुमार्गी की पहचान

गरुड़ काकभुसुंडि जी के समक्ष आश्चर्य प्रकट करते हैं कि रावण जो इतना बलशाली है, जिसके डर से सुर असुर सब इतना भयभीत हैं कि न निशा (रात) में सो पाते हैं और न दिन में भरपेट भोजन खा पाते हैं,

 

जाकें डर सुर असुर डेराहीं। निसि न नीद दिन अन्न न खाहीं

(अरण्यकाण्ड)


उस रावण को वेश बदल कर भगवती सीता का हरण करने के लिए चोर के भांति आना पड़ा।  तुलसीदास जी इसको "भड़िहाई" ऐसा लिखते हैं।  गरुड़ जी कहते हैं,  जैसे कुत्ता सूना देख चुपके से बर्तनों - भांडों में मुँह डालते वक़्त चोर के भांति आस पास डर से देखता  और ताकता है, वैसे ही बलशाली दशानन  रावण भड़िहाईं (चोरी ) करता हुआ माँ सीता का हरण करने हेतु पंचवटी में प्रवेश करता है। 


सो दससीस स्वान की नाईं। इत उत चितइ चला भड़िहाईं 

(अरण्यकाण्ड)


 राक्षस होते हुए भी जो कुल परम्परा से न केवल ब्राह्मण वरन प्रकांड पंडित था, जिसमें अतुलनीय बल था, जिसने खेल खेल में हीं कुबेर को जीत लिया हो और जिसने अपने बन्दीखाने में लोकपाल तक को कैद कर रखा हो वही रावण जब पंचवटी के पवित्र आश्रम में चौरकर्म करता हुआ श्वान जैसे जान पड़ता हो, इस पर काकभुसुंडि जी , एक कुमार्गी , कुपंथी की मनोदशा का वर्णन करते हैं , जो बहुत ही सटीक है।  

वह उत्तर देते है 

इमि कुपंथ पग देत खगेसा। रह न तेज तन बुधि बल लेसा 

(अरण्यकाण्ड)


अर्थात, जो भी कुमार्ग पर पैर रखते है उसके शरीर का तेज, बुद्धि और बल का लेश मात्रा भी नहीं रहता।

विद्वता , बल चाहे कितना भी हो जब व्यक्ति कुपंथ की और बढ़ता, उसकी प्रवृत्ति स्वयं को जब गर्हित कार्य में नियोजित होती है तब सबसे पहले उसका विवेक नाश हो जाता है।  विवेकशून्यता उसे काम , क्रोध,  लोभ, मद,  मोह और  मात्सर्य  के अधीन कर देती है और अनिष्ठ को और प्रवृत कर देती हैं, चाहे फिर विद्वान दशानन रावण ही क्यों न हो ? देखो कैसे दसकंधर रावण को उनका ही छोटा भाई कुंभकर्ण बिलखकर बोलता है - अरे मूर्ख! जगज्जननी जानकी को हर लाकर अब कल्याण चाहता है? 


सुनि दसकंधर बचन तब कुंभकरन बिलखान।

जगदंबा हरि आनि अब सठ चाहत कल्यान॥

(लङ्काकांड)


रावण के आगे एक अदना सा राम दूत अंगद भी,  अतुलित बलशाली रावण को अपमानित कर देता है , 

रे त्रियचोर कुमारग गामी। खल मल रासि मंदमति कामी

(लङ्काकांड)


इस सब का अर्थ यह हुआ कि मार्यादा के विपरीत कुमार्ग पर रखा एक कदम भी अन्तःत नाश की और ले जाता है इसलिए हमें हमेशा प्रभु के स्मरण कर नीति और सदाचार का आश्रय और आलम्बन लेना चाहिए।  यश मानव जीवन की विभूति है।इसे क्यों गवांए?

इति श्री 








   

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