Wednesday, September 3, 2014

प्रथम गुरु

प्रथम  गुरु

माँ  ने  सिखाया उलटना पलटना ,
उसने सिखाया चलना सम्भलना,
करवट लेना ,बैठना ,और बोलना ।

नन्ही टांगों की कंपकपाहट को थामना ,
गिरना ,रोना,फिर ,उठना और चल पड़ना ।
सिखाया उसने, हंस के हार स्वीकारना ।
भीगी आँखों से हंसना ,खिलखिलाना ।

सिखाया उसने नितत संघर्ष है ज़िन्दगी ,
निः स्वार्थ प्रेम ही एकमात्र बन्दिगी  ।

उसके आँचल में मिला स्वरों का ज्ञान ,
थपकियों ,लोरियों ने सहज ही करा दिया संगीत का भान ।

उसके होठों को देखा तो ,सीखा ,बोलना ।
साड़ी पकड़कर अनायास ही ,सीखा ,खड़ा हो पाना ,
अंगुली थाम के टेढ़े मेढ़े क़दमों से चल पाना ।

सिखाया उसने क्या होता ,अपनों का संबल ,
खुद ,ठिठुरते ,रात को ,उड़ाया जब अपने हिस्से का कम्बल ।

सिखाया उसने प्रकृति भी है  परिवार ,
हसीं बातों ने उसकी ,सिखाया ,छोटा नहीं संसार ।

रँगे हाथों जब पकड़ी उसने ,पहली चोरी ,
सीखा गई बहुत कुछ ,उसकी ,गुस्साती आँखें कोरी ।

सिखाया उसने शैशव में  ही बहुत कुछ  अनजान ,
याद करो आज उस प्रथम गुरु का एहसान ।