Sunday, January 25, 2015

तू....

मैंने देखा तुझमें ,फिर ,कुछ अपना सा ,
मेरी जैसी तू ,लगे कोई मीठा सपना सा ।

खोता सा मैं ,खोती सी तू ,
तेरे जैसा मैं ,मेरी जैसी तू ।

चलूँ कहीं भी चाहे मेरी परछाई अब नहीं मेरी ही,
चलता अब कोई साथ अनजान पर ,अपना ही ।

मूंदों आँखें ,अंतर में ,सूरत दिखे तेरी हंसती सी ,
बेखुद होता मैं ,अज़ब लगे मुझे अब  मुझे मेरी ख़ामोशी  भी ।

ख़ामोशी में भी करता हूँ मैं तुझसे बातें ,
कुछ मुस्कुरता में यूँ ही ,मेरे अंतर थोड़ा  हंसती तू भी ।

तूझमें खुद को देख लिया , है मीठा सा एहसास ये ,
फिर भी भटकती आँखें सोचें यूँ......
कहीं  किसी ओट से दिख जाये तू ।

गर्दिश के रास्ते पे तेरी आहट है सम्बल सी ,
मेरे बिखरते टुकड़ों को सहेजती तू ।
 






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