सुमन
मैंने ईश्वर से पूछा इक रात , निष्ठुर है क्यों तेरा न्याय
निर्जन हुआ बसंत , बिना 'सुमन' कैसे हम बताएं ?
प्रेम करुणा सरलता की थी 'सुमन ' पर्याय ,
कुछ बातें अधूरी रह गयीं ,कैसे कहाँ पहुंचाएं ?
अब अधूरे शब्द हैं कुछ ,निर्वात सा पसरा है मौन ,
स्नेह, ममत्व, निश्छल प्रेम की धारा बहाये कौन ?
कुछ निष्प्राण शब्दों को पिरो कविता बनाये कौन ,
जो सुनता था , उल्लास से , अब है वहां कैद मौन ?
करुण क्रंदन ,न प्रार्थना का है कोई न्याय ,
कर्म बड़ा ,या ,प्रारब्ध बड़ा कोई यह बतलाये
तर्क वितर्क के बीच ,सहसा मुस्काती माँ दिखी ,
आभा फैली मन में ,बही पवन स्नेहिल स्पर्श सी
है प्रेम इतना प्रगाढ़ बोली ,लौटेंगे फिर रंग ,
'सुमन' बन फिर लौट आउंगी मैं तुम्हारे अंक |
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