ईंटो क़े ढाँचे से रिश्ता है पुराना ,
नादान ख्वाहिशों का शहर था अनजाना ।
पापा की उँगलियों को छोड़ लांघी जब इसकी दहलीज़।
छोटे से हाथों से थामी टीचर की कमीज़ ।
अनजानों की दुनिया लगी थी तब ,
कुछ नन्हे से औरों को देखा था जब ।
यूँ सीमित था , तब रिश्तों का ज्ञान ,
ये अनजाने बनेंगे अपने ,नहीं था भान ।
जाने कब यारी ली सीख हमने ,
हंसी- ठहाकों से बातें लगी जमने ।
टीचर की डांट लगा करती थी बुरी ,
कोमल सा मन फिर भी नहीं बनाता था दूरी ।
टीचर के मन जगह बनाना ,
उनके स्नेह के काबिल बन जाना ।
जब कोई कह देता था बातें चुभने वाली ,
रूठ के बैठ जाया करते थे खाली ।
फिर हंसी में, रूठे मन में बहार आ जाना ,
घुल मिल के सबमें,फिर खुश हो जाना ।
सोचता हूँ भूल आया हूँ खुद को उस गैलरी में,
जहाँ हँसा था मेरा बचपन ,
जहाँ कैशोर ने झाँका था मुझ में ।
एक दूर मैदान में छोड़ आया खून पसीने के बूँद
सोचता हूँ कभी समेट आऊँ उस मिट्टी को जहाँ छोड़ आया सब कुछ....
नादान ख्वाहिशों का शहर था अनजाना ।
पापा की उँगलियों को छोड़ लांघी जब इसकी दहलीज़।
छोटे से हाथों से थामी टीचर की कमीज़ ।
अनजानों की दुनिया लगी थी तब ,
कुछ नन्हे से औरों को देखा था जब ।
यूँ सीमित था , तब रिश्तों का ज्ञान ,
ये अनजाने बनेंगे अपने ,नहीं था भान ।
जाने कब यारी ली सीख हमने ,
हंसी- ठहाकों से बातें लगी जमने ।
टीचर की डांट लगा करती थी बुरी ,
कोमल सा मन फिर भी नहीं बनाता था दूरी ।
टीचर के मन जगह बनाना ,
उनके स्नेह के काबिल बन जाना ।
जब कोई कह देता था बातें चुभने वाली ,
रूठ के बैठ जाया करते थे खाली ।
फिर हंसी में, रूठे मन में बहार आ जाना ,
घुल मिल के सबमें,फिर खुश हो जाना ।
सोचता हूँ भूल आया हूँ खुद को उस गैलरी में,
जहाँ हँसा था मेरा बचपन ,
जहाँ कैशोर ने झाँका था मुझ में ।
एक दूर मैदान में छोड़ आया खून पसीने के बूँद
सोचता हूँ कभी समेट आऊँ उस मिट्टी को जहाँ छोड़ आया सब कुछ....
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