बचपन में मैंने जब प्रथम बार तुलसीदास जी का जीवन परिचय पढ़ा , तब लगा था कि ईश्वर का खेल कितना निराला है। परोक्ष रूप में वह किस प्रकार अपने प्रयोजन को अभिव्यक्त कर देता।
राम स्वयं ब्रह्म हैं उनकी लीला वही जानें। योगीजन की चेतना जिस नाम से शाश्वत आनंद में आनंदित होते हैं उस परम ब्रह्म को शब्द रूप में राम कहा गया है।
रमन्ते योगिनोयस्मिन नित्यानन्दे सीदात्मनि |
इति राम पदेनसौ परम ब्रह्मभिधीयते ||
(श्री राम पूर्वतापनीय उपनिषद)
परब्रह्म अनंत, अथाह, शाश्वत और आनंद स्वरुप है । मोह रुपी अंधकार से निवृत्ति का एक ही मार्ग है उस परमब्रह्म की शरणागति।
तुलसीदास जी के मोह त्याग का प्रसंग हमें ईश्वर की अनुपम लीला का दर्शन करता है। तुलसीदास जी का विवाह रत्नावली जी से हुआ था।
विवाह के पश्चात, पुत्र तारक की मृत्यु के उपरान्त तुलसीदास जी की अपनी पत्नी में आसक्ति और तीव्र हो गयी। दुःख से पीड़ित तुलसीदास जी जब पत्नी वियोग में मोटी रस्सी से चढ़कर उनके कमरे में आये। यह रस्सी नहीं अपितु सर्प था ऐसा जान रत्नावली जी ने तुलसीदास जी से कहा “ये मेरा शरीर जो मांस और हड्डियों से बना है। जितना मोह आप मेरे साथ रख रहे हैं अगर उतना ध्यान भगवान राम पर देंगे तो आप संसार की मोह माया को छोड़ अमरता और शाश्वत आनंद प्राप्त करेंगे।"
तुलसीदास जी का आध्यात्मिक जीवन का मार्ग यहीं से प्रशस्त हुआ। इसके उपरान्त तुलसीदास जी घर छोड़कर तपस्वी बन गए। पति+नी (नी+क्विप्)=पतिनि शब्द का अपभ्रंश है, पत्नी। नी का अर्थ है, पथ प्रदर्शक अग्रणी आगे- आगे चलने वाला।इसी प्रकार पतिनी का अर्थ है- पति को साथ लेकर धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति में उसके आगे आगे चलने वाली स्त्री। वास्तव में रत्नावली जी के जिह्वा पर सरस्वती का वास था। हमारे दर्शन में हर स्त्री में शक्ति (देवी) भाव को देखा गया है। देवी ही माया हैं वही भ्रान्ति भी हैं और वही बुद्धि है और ज्ञान रुपी शान्ति भी हैं :
या देवी सर्वभूतेषु माया रूपेण संस्थिता।
या देवी सर्वभूतेषु भ्रान्ति रूपेण संस्थिता।
या देवी सर्वभूतेषु शांति रूपेण संस्थिता।
या देवी सर्वभूतेषु बुद्धि रूपेण संस्थिता।
वस्तुतः शक्ति सर्वत्र व्यापत हैं :
इन्द्रियाणामधिष्ठात्री भूतानां चाखिलेषु या| भूतेषु सततं तस्यै व्याप्तिदेव्यै नमो नमः।
कितनी अनोखी बात है , तुलसीदास जी ने वेदांग वेदांत सब पढ़ा, परन्तु रज्जु सर्प न्याय, उन्हें इस तरह ईश्वर करा देंगे यह बहुत विस्मयकारी है।ब्रह्म अनिर्वचनीय है , बुद्धि के परे हैं।
इस दिन के उपरान्त तुलसीदास जी की दिशा केवल राम शरणागति ही हो गयी। पर राम परात्पर ब्रह्म हैं , दयालु हैं| राम भक्तवत्सल हैं , शरणागत की रक्षा करने वाले हैं |अपने भक्त तुलसीदास को दर्शन दिए भक्त का मान भी रखा,
चित्रकूट के घाट पर, भइ सन्तन की भीर।
तुलसिदास चन्दन घिसें, तिलक देत रघुबीर॥
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