प्रेम -१
सघन चेत्सिक अंतर्द्वंद्व में ,
सघन चेत्सिक अंतर्द्वंद्व में ,
कभी मुक्त मन की उड़ान में ,
कभी निरंकुश सपनों के स्वछन्द विहान में ,
कभी आशंकाओं में ,कभी अकांक्षाओं में ,
कभी हज़ारों की भीड़ में खोजूँ तो ,
स्वप्नों का साकार रूप पाता हूँ तुम में।
अभिभूत हूँ ,तुम में निहित सौंदर्य से ,
संजीदगी से लिपटी हो तुम ,
रूहानियत को ढूंढ पाता हूँ तुम ,
कभी अल्हड़ता में तुम्हारी ,अपना
बचपन सजीव पाता हूँ मैं ।
मर्यादों के पशोपेश में ,अभिव्यक्ति से घबराता हूँ मैं ,
आवाज़ की कशिश में तुम्हारी ,डूब जाता हूँ मैं ,
हृदयांतर में प्रकाश स्वरुप पाकर सम्पूर्ण हो जाता हूँ मैं ,
प्रेम के इस बंधन से पुलकित होता हूँ मैं ,
प्रतिक्षण ,इस आत्मीय बंधन से हर्षित होता हूँ मैं ,
इस आत्मिक बंधन को शब्दों से गढ़ता हूँ मैं ,
अद्भुत -अनुपम अनुभूति है तुम्हारा साथ ,
कामना है प्रेम यूँ ही जिए ,निः स्वार्थ ||
कभी निरंकुश सपनों के स्वछन्द विहान में ,
कभी आशंकाओं में ,कभी अकांक्षाओं में ,
कभी हज़ारों की भीड़ में खोजूँ तो ,
स्वप्नों का साकार रूप पाता हूँ तुम में।
अभिभूत हूँ ,तुम में निहित सौंदर्य से ,
संजीदगी से लिपटी हो तुम ,
रूहानियत को ढूंढ पाता हूँ तुम ,
कभी अल्हड़ता में तुम्हारी ,अपना
बचपन सजीव पाता हूँ मैं ।
मर्यादों के पशोपेश में ,अभिव्यक्ति से घबराता हूँ मैं ,
आवाज़ की कशिश में तुम्हारी ,डूब जाता हूँ मैं ,
हृदयांतर में प्रकाश स्वरुप पाकर सम्पूर्ण हो जाता हूँ मैं ,
प्रेम के इस बंधन से पुलकित होता हूँ मैं ,
प्रतिक्षण ,इस आत्मीय बंधन से हर्षित होता हूँ मैं ,
इस आत्मिक बंधन को शब्दों से गढ़ता हूँ मैं ,
अद्भुत -अनुपम अनुभूति है तुम्हारा साथ ,
कामना है प्रेम यूँ ही जिए ,निः स्वार्थ ||
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