इस श्रृंखला का उद्देश्य काश्मीर शैव दर्शन की जितनी मेरी समझ उसे मैं साझा करूँ।
सर्वप्रथम गुरु परंपरा को नमन
शंकरं शंकराचार्यं केशवं बादरायणम् ।
सूत्रभाष्यकृतौ बन्दे भगवन्तौ पुनः पुनः ॥
शंकराचार्य द्वारा प्रदत्त अद्वैत दर्शन मानता है ब्रह्म निष्क्रिय है, न भोक्ता है न कर्ता, वह सबसे परे हैं। भगवद्पाद आदि शंकराचार्य जी जब आठ वर्ष के थे तब संन्यास मार्ग में प्रवृत हो गए थे। हिमालय में शंकराचार्य जी से स्वामी गोविंदपाद जी मिले, तब उनसे पूछा, "तुम कौन हो ?"
तब बालक शंकराचार्य ने उत्तर दिया, न मैं मन हूं, न बुद्धि, न अहंकार, न ही चित्त, न कान, न जीभ, न नासिका, न ही नेत्र, न तो आकाश हूं, न धरती, न अग्नि, न ही वायु हूं। मैं न प्राण हूं, न ही पंच वायु हूं, मैं न सात धातु हूं, और न ही पांच कोश हूं। न मुझे घृणा है, न लगाव है, न मुझे लोभ है, और न मोह, न मुझे अभिमान है, न ईर्ष्या, मैं धर्म,धन, काम एवं मोक्ष से परे हूं। मैं पुण्य, पाप, सुख और दुख से विलग हूं, मैं न मंत्र हूं, न तीर्थ, न ज्ञान, न ही यज्ञ न मैं भोजन(भोगने की वस्तु) हूं, न ही भोग का अनुभव, और न ही भोक्ता हूँ। न मुझे मृत्यु का डर है, न जाति का भेदभाव मेरा न कोई पिता है, न माता, न ही मैं कभी जन्मा था, मेरा न कोई भाई है, न मित्र, न गुरू, न शिष्य,मैं निर्विकल्प हूं, निराकार हूं, मैं चैतन्य के रूप में सब जगह व्याप्त हूं, सभी इन्द्रियों में हूं, न मुझे किसी चीज में आसक्ति है, न ही मैं उससे मुक्त हूं।
मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
मनोबुद्धयहंकारचित्तानि नाहम् न च श्रोत्र जिह्वे न च घ्राण नेत्रे
न च व्योम भूमिर्न तेजॊ न वायु: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥1॥
न च प्राण संज्ञो न वै पञ्चवायु: न वा सप्तधातुर्न वा पञ्चकोश:
न वाक्पाणिपादौ न चोपस्थपायू चिदानन्द रूप:शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥2॥
न मे द्वेष रागौ न मे लोभ मोहौ मदो नैव मे नैव मात्सर्य भाव:
न धर्मो न चार्थो न कामो ना मोक्ष: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥3॥
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खम् न मन्त्रो न तीर्थं न वेदार् न यज्ञा:
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता चिदानन्द रूप:शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥4॥
न मे मृत्यु शंका न मे जातिभेद:पिता नैव मे नैव माता न जन्म:
न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्य: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥5॥
अहं निर्विकल्पॊ निराकार रूपॊ विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्
न चासंगतं नैव मुक्तिर्न मेय: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥6॥
इस प्रकार वे नेति नेति द्वारा ब्रह्म को उद्घोषित कर देते हैं और जीव और ब्रह्म का एकत्व बता देते हैं।
शंकराचार्य निरालम्बोपनिषद (वेदान्तो नामोपनिषद् प्रमाणम्) से प्रमाण देते हैं और ब्रह्मज्ञान वल्ली माला में उद्धृत करते हैं कि ब्रह्म वास्तविक है, ब्रह्मांड मिथ्या है । जीव ही ब्रह्म है और भिन्न नहीं। इसे सही शास्त्र के रूप में समझा जाना चाहिए। यह वेदांत द्वारा घोषित किया गया है।
ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः ।
अनेन वेद्यं सच्छास्त्रमिति वेदान्तडिण्डिमः ॥
एक जो भ्रम है : कि अद्वैत का अर्थ ब्रह्म को पाना। जो निष्क्रिय है , न भोक्ता है ऐसे में उसको पाना इसे समझ पाना बुद्धि से परे है। ब्रह्म को इसलिए अनिर्वचनीय बताया गया है और ब्रह्म को समझने के लिए उपनिषद्कार नेति नेति के तरीके को अपनाते हैं। यह समझना नितांत आवश्यक है कि अद्वैत का निष्कर्ष ब्रह्म को पाना नहीं परन्तु अविद्या (माया) को हटाना है।
ब्रह्म सर्वत्र व्यापत है : तस्य भासा इदं सर्वं भाति। वस्तुतः ब्रह्म निष्क्रिय है और सारी सृष्टि माया है, यह अविद्या है जो आक्षिप्त है ब्रह्म पर।हमारा वास्तविक स्वरुप क्या है ? यह जानना अर्थात अविद्याकृत संसार के परदे को फाड़ फेंकना। ब्रह्म तो पूर्व प्राप्त है , ज़रुरत है अविद्या के उन्मूलन की जो ज्ञान से प्राप्त हो पायेगा। शांकर अद्वैत दर्शन सुन्दर और अद्वितीय है परन्तु ब्रह्म को समझने का अद्वैत मार्ग काफी उदासीन बना देता है। अद्वैत मार्ग साधक को व्यक्तिवाद की पराकाष्ठा तक ले जाता है ।
यहाँ मेरा मत अद्वैत को अपूर्ण य काम आंकना नहीं है। मैं एक अदना सा शोधार्थी हूँ। जो यहाँ वहां मिलता है उसे संकलित कर अपने स्वान्तः सुखाय के लिख लेता और दार्शनिक रसास्वादन करता हूँ। अद्वैत प्रवर्तक आदि शंकराचार्य स्वयं शिव ही हैं ऐसा सनातन धर्मावलम्बी मानते आये हैं : शंकरो शंकर: साक्षात्। पर सत्य सहिष्णुता की पराकाष्ठा की स्वीकृति शनै: शनै: विकसित होती है और वह एकाएक किसी व्यक्ति के जीवन में उदित नहीं हो सकती ( पूरी पीठ जगद्गुरु निश्चलानंद सरस्वती )।
यह स्वयं योगेश्वर श्री कृष्ण गीता जी में कहते हैं
शनैः शनैरुपरमेद् बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्।।
शनै: शनै: धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा (योगी) उपरामता (शांति) को प्राप्त होती जब मन को आत्मा में स्थित करके फिर अन्य कुछ भी चिन्तन न करें।
शनैः शनैरुपरमेद् बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्।।
शनै: शनै: धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा (योगी) उपरामता (शांति) को प्राप्त होती जब मन को आत्मा में स्थित करके फिर अन्य कुछ भी चिन्तन न करें।
सभी पूर्वाचार्यों ने सही मायने में अद्वैत से मामूली सा अंतर कर अपना सिद्धांत प्रतिपादित किया है। काश्मीर वेदान्तियों का मत है जगत को सत्य मानकर भी अद्वैत की सिद्धि हो सकती है।
काश्मीर शैव मत भी अद्वैतवादी है। परन्तु यहाँ पूर्ण ब्रह्म शिव हैं। यहाँ आगम को प्रमाण माना है इसलिए यह तांत्रिक मत है इसलिए काफी गोपनीय भी। जहाँ अद्वैत एक निषेधात्मक दर्शन है और जगत को मिथ्या कहता है वहीँ कश्मीर शैव दर्शन ने जगत को मिथ्या नहीं बताया। यहाँ भोग और योग का प्रवृत्ति और निवृत्ति का समन्वय है। यह जगत और जागतिक मूल्यों के प्रति भावात्मक दृष्टिकोण देता है।
ऐसा बताया जाता है , स्वयं शिव भगवान् ने वसुगुप्त को स्वपन में शिव सूत्र दिया जिस पर यह शैवाद्वैत टिका हुआ है। इसे त्रिक दर्शन कहा गया है और त्रिक शास्त्र हैं : सिद्धतन्त्र, मालिनीतंत्र और तंत्रागम (वामागम)। काश्मीर शैवदर्शन में आचार्य अभिनवगुप्त को सर्वाधिक जाना जाता है। वे बहुत ही सुन्दर काव्य के रचनाकार थे , उनके छन्द और रसों का प्रयोग उन्हें साहित्य में भी विशिष्ठ स्थान दिलाता है।
काश्मीर शैव मत भी अद्वैतवादी है। परन्तु यहाँ पूर्ण ब्रह्म शिव हैं। यहाँ आगम को प्रमाण माना है इसलिए यह तांत्रिक मत है इसलिए काफी गोपनीय भी। जहाँ अद्वैत एक निषेधात्मक दर्शन है और जगत को मिथ्या कहता है वहीँ कश्मीर शैव दर्शन ने जगत को मिथ्या नहीं बताया। यहाँ भोग और योग का प्रवृत्ति और निवृत्ति का समन्वय है। यह जगत और जागतिक मूल्यों के प्रति भावात्मक दृष्टिकोण देता है।
ऐसा बताया जाता है , स्वयं शिव भगवान् ने वसुगुप्त को स्वपन में शिव सूत्र दिया जिस पर यह शैवाद्वैत टिका हुआ है। इसे त्रिक दर्शन कहा गया है और त्रिक शास्त्र हैं : सिद्धतन्त्र, मालिनीतंत्र और तंत्रागम (वामागम)। काश्मीर शैवदर्शन में आचार्य अभिनवगुप्त को सर्वाधिक जाना जाता है। वे बहुत ही सुन्दर काव्य के रचनाकार थे , उनके छन्द और रसों का प्रयोग उन्हें साहित्य में भी विशिष्ठ स्थान दिलाता है।
उनका सब से सुन्दर ग्रन्थ तन्त्रालोक है। तन्त्रालोक में प्रत्यभिज्ञा दर्शन को महत्व दिया गया है |
प्रत्यभिज्ञा (= प्रति + अभिज्ञा) का शाब्दिक अर्थ है- पहले से देखे हुए को
पहचानना, या, पहले से देखी हुई वस्तु की तरह की कोई दूसरी वस्तु देखकर
उसका ज्ञान प्राप्त करना।
प्रत्यभिज्ञा का सरल अर्थ है : खुद को पहचानना। कहा गया है शिव स्पन्द शक्ति से युक्त हैं और वही उद्भव और प्रलय का कारण है।जहाँ अद्वैत में ब्रह्म को निष्क्रिय बताया है वहीँ कश्मीर शैव मत में शिव को स्पंदमान या क्रियाशील बताया है। जैसे शांकर दर्शन में जीव और ब्रह्म में भेद नहीं उसी प्रकार यहाँ जीव और शिव में कोई अंतर नहीं हैं। जीव तत्वतः शिव ही है और शिव लीला कर जीव का रूप धारण करते हैं। जब अंधकार अज्ञान का हटता है तब साधक शिवोहम शिवोहम ऐसा कह उठता है। यहाँ शिव शक्ति और जीव का मिलन ही परम गति है।
प्रत्यभिज्ञा दर्शन में शिव के दो रूप बताये गए : प्रकाश और विमर्श । प्रकाश की छाया ही विमर्श हैं : जहाँ शिव गौरवर्ण हैं सो प्रकाश स्वरुप वहीँ माँ काली विमर्श हैं। जहाँ शिव चैतन्य स्वरुप हैं वहीँ काली अवचेतन (आत्मचेतन )हैं। जब आत्मचेतना प्रस्फुटित होगी तब शिवत्व से एकाकार होगा । यहाँ उल्लेखनीय है कि शिव यहाँ स्पन्द शक्ति से युक्त हैं , इसलिए अद्वय तत्त्व होने पर भी इनमें आत्मचेतना है। तंत्र के अनुसार आत्मचेतना ( self consciousness ) चैतन्य (consciousness) का ही स्वरुप है। प्रकाश तत्त्व को दर्पण की उपमा दी गयी है : जो शिव तत्त्व के सामने आता है वह उस से प्रकाशित हो जाएगा। प्रकाश और विमर्श की शक्तियों अर्थात शिव की पांच शक्तियों पर विचार अगली कड़ी में...............।
(आगे आने वाली सारी पोस्ट की मुख्यतः पाठ्य सामग्री हैं : काश्मीर शैव दर्शन , मूल सिद्धांत, कैलाश पति मिश्र )
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