Saturday, March 16, 2024
सूर परिचय -१
Friday, March 15, 2024
शैव अद्वैत भूमिका - ६ (जीवन्मुक्ति)
अद्वैतवादी मानते हैं कि जीवन्मुक्त की अवस्था आने के पश्चात व्यक्ति केवल प्रारब्ध के कर्म क्षय तक संसार में जीता है। न कोई रूचि न लगाव न कोई सांसारिक प्रयोजन होता है। उसमें कोई क्रिया नहीं होती वह सांसरिक निष्क्रिय हो जाता है। काश्मीर वेदांती मानते हैं कि जीवनमुक्ति पूर्ण सक्रियता की अवस्था है। काश्मीर मत में क्रिया या स्पन्द आत्मिक है सो जीवन्मुक्त होने का अर्थ स्वाभाविक रूप से क्रियाशील हो जाना है। वह सांसारिक कार्य करता है , पर लीला कार्य या स्पन्द कार्य है जैसे।
काश्मीर मत कि ये विशेषता है कि आत्मा प्राप्ति या जीवनमुक्ति के उपरान्त भी आत्मा (जिसकी प्राप्ति जीवनमुक्ति के बाद हुई ) जगत से कटती (isolate) नहीं वरन जगत में समाहित होती हो जाती है। जीवन मुक्त व्यक्ति जान लेता है सब में मैं और मुझमें सब हैं और सारा संसार मेरा ही वैभव है। ईश्वरप्रत्यभिज्ञा दर्शिनी में अभिनवगुप्त कहते हैं :
सर्वो ममायं विभव इत्येवं परिजानतः ।
विश्वात्मनो विकल्पानां प्रसरेऽपि महेशता॥
जीवन्मुक्त सारे संसार में एकत्व समझता है। पूर्णतः विश्वप्रेम में रहता है। जगत बंधन नहीं बल्कि जगत को अपने से भिन्न समझना बंधन है।
जीवन्मुक्त व्यक्ति संसार के भोगों को भी अपने स्वरुप के लीला विलास के रूप में लेता है। वह संसारिक भोगों में भी अपने स्वरुप को ही भोगता है। जगत का आनंद उसका स्वरूपानंद का ही स्फुरण है। भोगों को जब कामना की पूर्ति या स्वार्थपूर्ण प्राप्ति के लिए करते हैं तब बंधन है और जब भोग आनंद के स्पन्द के रूप में हो तब बंधन नहीं करता वरन आनंद उदात्त होता है। भोग बंधन नहीं अपितु स्वार्थ और अहंकार है। तंत्र इसे सूर्य और अग्नि के दृष्टांत से समझाया गया है। जैसे सूर्य सारी गन्दगी सोखकर भी और अग्नि सारी गंदगी जलाकर भी दूषित नहीं होते उसी प्रकार एक योगी ( जीवन्मुक्त) सभी भोगों को भोग कर भी पाप से निर्लिप्त रहता है:
सर्वशोषी यथा सूर्यः सर्वभोगी यथाSनल:।
योगी भुक्त्वाखिलान् भोगान् तथा पापैर्न लिप्यते।।
(कुलार्णव तंत्र)
Thursday, March 14, 2024
शैव अद्वैत भूमिका - ४ (प्रत्यभिज्ञा)
जीवन और जगत के लिए कार्य खिलवाड़ (लीला ) है तो उसमें सार्थकता नष्ट नहीं हो जाती है ? कोई काम भी ठीक से नहीं हो पायेगा।
आइये इसको ऐसे समझते हैं :
अगर आनंद से सारे काम किये जाएँ तो वे कुशलता से संपन्न हो जाते हैं क्योंकि आत्मा में व्याप्त क्रिया शक्ति निर्बाध हो जाती है | वहीं तनाव में काम में अवरोध (inhibition) होता है | जब कोई सृजन आनंद से स्पंदित ( when it evolves with spontaneity) होता है तब रचना बहुत सुंदर लगती है वहीं जब चेतना पर जोर ( strain) से कार्य या रचना करें तो उस सृजन में सुंदरता नहीं जान पड़ती | अवतार या जीवन्मुक्त बड़े बड़े कार्य कुशलता से इसलिए कर पाते हैं क्योंकि वे आनंद की स्थिति में लीला करते हैं | सो वहाँ स्पंद् सहसा प्रतीत होता है | लीलाधर योग की सहज समाधि की स्थिति में रहते हैं | इस स्थिति में किये गए कार्य आनंद क्रीडन होते हैं और पूर्णतया सक्षम होते हैं | योगेश्वर कृष्ण ने पूरी गीता सहज समाधि में कही |
अब विचार आता है अगर सृष्टि शिव का आनंद क्रीडन है तो सांसारिक दुख और पाप क्या हैं? क्या शिव इनके लिए उत्तरदायी हैं ?
इसे फुटबॉल के खेल के दृष्टान्त से समझते हैं। खेल का प्रवर्तन इस भाव से हुआ कि सारे खिलाड़ी आनंद से खेलें और कोई गड़बड़ी न करें। परन्तु सब रोबोट तो नहीं सबका इच्छा स्वातंत्र्य है। अगर कोई इस इच्छा स्वातंत्र्य के अधीन हो कर फ़ाउल करता है तो रेफ़री रेड कार्ड या येलो कार्ड दिखा कर दण्डित करता है।
उसी प्रकार यह सृष्टि का खेल शिव ने चलाया है उसमें अन्य खिलाडियों ( जीव ) को उन्होंने लगा रखा है। ऐसा कह सकते हैं कि जीवों में कुछ हद तक इच्छा स्वातंत्र्य है अन्यथा उसका स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त ही हो जाएगा। शिव नहीं चाहते कि कोई अपराध करे पर जीव इच्छा स्वातंत्र्य के अधीन गलत कर्म करते हैं जिसके फल स्वरुप उन्हें दंड भी मिलता है।
शिव ने जीवों के सुधार के लिए और सृष्टि खेल को समुचित रूप से चलाने के लिए कर्म नियम के अनुसार दंड विधान को भी लागू किया है और यह भी सृष्टि खेल का ही अंग है।
क्रिया काश्मीर शैव दर्शन का मूल सिध्दांत है तो प्रत्यभिज्ञा उसका मूल लक्ष्य। आगम परिचय कराते हैं कि हम शिव ही हैं , बस मलावरण के कारण हम अपना स्वरुप भूल ही जाते हैं। मलावरण हटते ही अपनी स्वयं की वास्तविक पहचान हो जाती है। इसे ही प्रत्यभिज्ञा कहा जाता है। यह समझना होगा कि मलावरण अज्ञान मूलक है तथापि आत्मप्राप्ति ज्ञान से ही होगी।
"हम हैं" यह तो सपष्ट है ! कर्त्ता और ज्ञाता के रूप में हमारी सत्ता स्वतः सिद्ध है , सभी ज्ञान और क्रिया के रूप में हम पहले से ही हैं , हम आदिसिद्ध हैं परन्तु हम अपना वास्तविक परिचय भूल गए हैं ! अभिनवगुप्त ने ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी में यही बताया है कि :
कर्तरि ज्ञातरि स्वात्मन्यादिसिद्धे महेश्वरे ।
अजडात्मा निषेधं वा सिद्धिं वा विदधीत कः ॥
किन्तु माया के अधीन होने से स्वयं का दर्शन ( प्रत्यभिज्ञा) नहीं हो पाती। शक्ति प्रदर्शन के माध्यम से ही ये प्रत्यभिज्ञा जान पड़ती है ।
किं तु मोहवशादस्मिन्दृष्टेऽप्यनुपलक्षिते।
शक्त्याविष्करणेनेयं प्रत्यभिज्ञोपदर्श्यते॥
यहाँ उल्लेखनीय है कि तंत्र शास्त्र में पौरुष अज्ञान ( पौरुष ज्ञान ) और बौद्ध अज्ञान ( बौद्ध ज्ञान) में भेद है। समस्त भारतीय दर्शन का प्रायः ये मत रहा है कि ज्ञान मुक्ति का और अज्ञान बंधन का कारक है। परन्तु ज्ञान बौद्धिक ( intellect) समझ नहीं होती। इस हिसाब से बौद्धिक जानकारी से मोक्ष न मिल जाए ? और शास्त्र ज्ञान से मुक्ति ?
तंत्र में इसे समझने के लिए पौरुष ज्ञान की अवधारणा मिलती है। ज्ञान केवल बौद्धिक नहीं , बौद्धिक ज्ञान बौद्धिक अज्ञान दूर कर सकता है। परन्तु वह अज्ञान जो हमारी प्रत्यभिज्ञा में बाधक है , स्वरुप समझने में अवरोध है वह बौद्धिक अज्ञान नहीं वरन आध्यात्मिक मल है। आध्यात्मिक मल ने ही समूचे पुरुष को जकड़ रखा है , यही पौरुष अज्ञान है : जिसकी निवृत्ति साधना से होती है। अर्थात् साधना से जो आध्यात्मिक प्रकाश उत्पन्न होता है वही पौरुष ज्ञान है। अतः मूल समस्या पौरुष अज्ञान है।
Wednesday, March 13, 2024
शैव अद्वैत भूमिका -३ (क्रिया सिद्धांत)
काश्मीर शैव दर्शन एक आगामिक दर्शन है जिसमें उपनिषद् में उल्लिखित स्पंद अवधारणा और अद्वैत वेदांत का समन्वय मिलता है | क्रिया की अवधारणा इस दर्शन की मुख्य विशेषता है | शिव परम चैतन्य हैं जो ज्ञान ही नहीं अपितु क्रिया भी हैं। शिव की क्रियाशीलता ही शक्ति हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि परम चैतन्य की अवधारणा में शिव-शक्ति , प्रकाश -विमर्श, ज्ञान क्रिया का संनिवेश है । जैसे जल धारा में जल और धरा दो तत्त्व नहीं , जल का बहना ही धारा है उसी प्रकार शिव शक्ति अविभाज्य हैं और एक ही तत्त्व हैं। क्रियाशील शिव = शक्ति, इस अवधारणा का प्रतीकात्मक स्वरूप ही अर्धनारीश्वर हैं | शिव और भगवती पार्वती एक ही हैं।
क्रिया सिद्धांत में कहा जाता है कि शिव में आत्म चेतना है या अहं विमर्श है। क्रिया ही इस आत्मचेतना (self conciousness) का कारण हैं। अहम् विमर्श चैतन्य की नित्य क्रिया या नित्य स्पन्द है। चैतन्य (शिव) कभी भी आत्मा चेतना (पार्वती) से विरहित नहीं हो सकता है। काश्मीर वेदांत मत से सोचें तो अद्वैत दर्शन का ब्रह्म जड़ जान पड़ता है। क्रिया से ही सृष्टि का सर्जन होता है। शिव किसी पूर्ती के लिए या प्रयोजन से नहीं बल्कि जब आनंद स्पंदित होता है तब स्वाभाविक ही सृष्टि क्रिया करते हैं। यह शिव की विवशता (compulsion or necessity) नहीं है वरन एक स्वांत्र्य है , लीला विलास है : साधारण भाषा में शिव सृष्टि क्रिया के रूप में नृत्य करते है खेल खेलते हैं| सृष्टि क्रिया प्रतीकात्मक रूप से नटराज है।
शिव का सृष्टि क्रिया करना लीला विलास है या खेल है इसमें गाम्भीर्य का नितांत अभाव प्रतीत होता है। क्या शिव सार्थक और गंभीर कार्य करने के बजाये बच्चों जैसा खिलवाड़ करते हैं ?
मनोवैज्ञानिक रूप से विश्लेषण करें तो तथाकथित गंभीर कार्य या "सार्थक क्रिया " अहंकार से उत्थित एक प्रकार की आत्मा प्रपंचना (self-deception )है। अन्ततोगत्वा कार्य मात्र कार्य के लिए नहीं किसी न किसी लाभ के लिए ही तो किया जाएगा और अंतिम लाभ तो आनंद या आत्मा तृप्ति है।
मनोचिकित्सीय दृष्टि से सोचें तो आनंद से किया कार्य स्वास्थय मूलक है। जब कार्य प्रयोजन वश होता है तो तनाव को जन्म देता है वहीँ आनंद में किया गए कार्य में हम स्वस्थ होते है : स्व में स्थित रहते हैं और विश्रांति (relaxation) महसूस करते हैं। शिव चैतन्य पूर्ण विश्रांति की अवस्था है उसे मानसिक स्वास्थय की आदर्श अवस्था कहा जा सकता है।
यहां एक और पक्ष समझना होगा कि जब हम आनंद से कोई काम करते हैं तो दूसरों में विश्रांति लाते हैं वहीँ हमारा तनावपूर्ण कार्य दूसरों में तनाव आरोपित करता है। शिशु जब किलकारी ( आनंद ) करता है तो दूसरे भी आनंदित होते है जब कोई कलात्मक सृजन होता है तो सबसे में आनंद प्रवाहित करता है। प्रेम विश्रांति की स्थिति है और दूसरों में भी विश्रांति लाती है। क्रोध घृणा से किया हुआ कार्य दूसरों में तनाव उत्पन्न करता है। तात्पर्य यह हुआ कि आनंद से कार्य से ही जगत का कल्याण ही होगा। सनातन में अवतार के लिए भी यही कही गयी है कि वे लीला करते हैं और कल्याण करते हैं। यह बात परस्पर विरोधी लगती हैं पर यह दोनों ही सत्य है : अवतार आनंद के लिए लीला करते हैं किन्तु जगत के लिए वह सहज ही उपकारी हो जाती है।
अब प्रश्न यह उठता है कि जीवन और जगत के लिए कार्य खिलवाड़ (लीला ) है तो उसमें सार्थकता नष्ट नहीं हो जाती है ?
Tuesday, March 12, 2024
शैव अद्वैत भूमिका - २ (स्पन्द)
शांकर अद्वैतवाद में परमब्रह्म को अद्वितीय ऐसा माना गया है, इस कारण उनकी आत्मचेतना हो ऐसा भाव द्वैत परक है। जब ब्रह्म को पूर्व मान्य माना है, तो निष्कर्ष निस्संदेह ही निषेधात्मक होगा। अद्वैत में कर्म को क्रिया माना गया है। क्रियाशीलता अपूर्णता की द्योतक है। साधारणतया जब कोई कमी होती है उसे ही पूर्ण करना क्रिया (कर्म) को जन्म देता है। इसी कारण अद्वैतवादी मत में ब्रह्म को निष्क्रिय बताया गया है !
ब्रह्म में सृष्टि क्रिया नहीं मानी जा सकती। चूंकि क्रियाशीलता ब्रह्म की अपूर्णता को सिद्ध कर देगी। तथापि उन औपनिषदीय व्याख्या जिसमें ब्रह्म को सृष्टि कर्त्ता बताया है वहां शांकर मत है कि उसे कहानी (आख्यायिका) के तौर पर मानना सर्वथा उचित होगा।
शैव अद्वैत - १ (भूमिका)
इस श्रृंखला का उद्देश्य काश्मीर शैव दर्शन की जितनी मेरी समझ उसे मैं साझा करूँ।
सर्वप्रथम गुरु परंपरा को नमन
शंकरं शंकराचार्यं केशवं बादरायणम् ।
सूत्रभाष्यकृतौ बन्दे भगवन्तौ पुनः पुनः ॥
शंकराचार्य द्वारा प्रदत्त अद्वैत दर्शन मानता है ब्रह्म निष्क्रिय है, न भोक्ता है न कर्ता, वह सबसे परे हैं। भगवद्पाद आदि शंकराचार्य जी जब आठ वर्ष के थे तब संन्यास मार्ग में प्रवृत हो गए थे। हिमालय में शंकराचार्य जी से स्वामी गोविंदपाद जी मिले, तब उनसे पूछा, "तुम कौन हो ?"
तब बालक शंकराचार्य ने उत्तर दिया, न मैं मन हूं, न बुद्धि, न अहंकार, न ही चित्त, न कान, न जीभ, न नासिका, न ही नेत्र, न तो आकाश हूं, न धरती, न अग्नि, न ही वायु हूं। मैं न प्राण हूं, न ही पंच वायु हूं, मैं न सात धातु हूं, और न ही पांच कोश हूं। न मुझे घृणा है, न लगाव है, न मुझे लोभ है, और न मोह, न मुझे अभिमान है, न ईर्ष्या, मैं धर्म,धन, काम एवं मोक्ष से परे हूं। मैं पुण्य, पाप, सुख और दुख से विलग हूं, मैं न मंत्र हूं, न तीर्थ, न ज्ञान, न ही यज्ञ न मैं भोजन(भोगने की वस्तु) हूं, न ही भोग का अनुभव, और न ही भोक्ता हूँ। न मुझे मृत्यु का डर है, न जाति का भेदभाव मेरा न कोई पिता है, न माता, न ही मैं कभी जन्मा था, मेरा न कोई भाई है, न मित्र, न गुरू, न शिष्य,मैं निर्विकल्प हूं, निराकार हूं, मैं चैतन्य के रूप में सब जगह व्याप्त हूं, सभी इन्द्रियों में हूं, न मुझे किसी चीज में आसक्ति है, न ही मैं उससे मुक्त हूं।
मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
मनोबुद्धयहंकारचित्तानि नाहम् न च श्रोत्र जिह्वे न च घ्राण नेत्रे
न च व्योम भूमिर्न तेजॊ न वायु: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥1॥
न च प्राण संज्ञो न वै पञ्चवायु: न वा सप्तधातुर्न वा पञ्चकोश:
न वाक्पाणिपादौ न चोपस्थपायू चिदानन्द रूप:शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥2॥
न मे द्वेष रागौ न मे लोभ मोहौ मदो नैव मे नैव मात्सर्य भाव:
न धर्मो न चार्थो न कामो ना मोक्ष: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥3॥
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खम् न मन्त्रो न तीर्थं न वेदार् न यज्ञा:
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता चिदानन्द रूप:शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥4॥
न मे मृत्यु शंका न मे जातिभेद:पिता नैव मे नैव माता न जन्म:
न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्य: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥5॥
अहं निर्विकल्पॊ निराकार रूपॊ विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्
न चासंगतं नैव मुक्तिर्न मेय: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥6॥
इस प्रकार वे नेति नेति द्वारा ब्रह्म को उद्घोषित कर देते हैं और जीव और ब्रह्म का एकत्व बता देते हैं।
शंकराचार्य निरालम्बोपनिषद (वेदान्तो नामोपनिषद् प्रमाणम्) से प्रमाण देते हैं और ब्रह्मज्ञान वल्ली माला में उद्धृत करते हैं कि ब्रह्म वास्तविक है, ब्रह्मांड मिथ्या है । जीव ही ब्रह्म है और भिन्न नहीं। इसे सही शास्त्र के रूप में समझा जाना चाहिए। यह वेदांत द्वारा घोषित किया गया है।
ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः ।
अनेन वेद्यं सच्छास्त्रमिति वेदान्तडिण्डिमः ॥
एक जो भ्रम है : कि अद्वैत का अर्थ ब्रह्म को पाना। जो निष्क्रिय है , न भोक्ता है ऐसे में उसको पाना इसे समझ पाना बुद्धि से परे है। ब्रह्म को इसलिए अनिर्वचनीय बताया गया है और ब्रह्म को समझने के लिए उपनिषद्कार नेति नेति के तरीके को अपनाते हैं। यह समझना नितांत आवश्यक है कि अद्वैत का निष्कर्ष ब्रह्म को पाना नहीं परन्तु अविद्या (माया) को हटाना है।
ब्रह्म सर्वत्र व्यापत है : तस्य भासा इदं सर्वं भाति। वस्तुतः ब्रह्म निष्क्रिय है और सारी सृष्टि माया है, यह अविद्या है जो आक्षिप्त है ब्रह्म पर।हमारा वास्तविक स्वरुप क्या है ? यह जानना अर्थात अविद्याकृत संसार के परदे को फाड़ फेंकना। ब्रह्म तो पूर्व प्राप्त है , ज़रुरत है अविद्या के उन्मूलन की जो ज्ञान से प्राप्त हो पायेगा। शांकर अद्वैत दर्शन सुन्दर और अद्वितीय है परन्तु ब्रह्म को समझने का अद्वैत मार्ग काफी उदासीन बना देता है। अद्वैत मार्ग साधक को व्यक्तिवाद की पराकाष्ठा तक ले जाता है ।
शनैः शनैरुपरमेद् बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्।।
शनै: शनै: धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा (योगी) उपरामता (शांति) को प्राप्त होती जब मन को आत्मा में स्थित करके फिर अन्य कुछ भी चिन्तन न करें।
काश्मीर शैव मत भी अद्वैतवादी है। परन्तु यहाँ पूर्ण ब्रह्म शिव हैं। यहाँ आगम को प्रमाण माना है इसलिए यह तांत्रिक मत है इसलिए काफी गोपनीय भी। जहाँ अद्वैत एक निषेधात्मक दर्शन है और जगत को मिथ्या कहता है वहीँ कश्मीर शैव दर्शन ने जगत को मिथ्या नहीं बताया। यहाँ भोग और योग का प्रवृत्ति और निवृत्ति का समन्वय है। यह जगत और जागतिक मूल्यों के प्रति भावात्मक दृष्टिकोण देता है।
ऐसा बताया जाता है , स्वयं शिव भगवान् ने वसुगुप्त को स्वपन में शिव सूत्र दिया जिस पर यह शैवाद्वैत टिका हुआ है। इसे त्रिक दर्शन कहा गया है और त्रिक शास्त्र हैं : सिद्धतन्त्र, मालिनीतंत्र और तंत्रागम (वामागम)। काश्मीर शैवदर्शन में आचार्य अभिनवगुप्त को सर्वाधिक जाना जाता है। वे बहुत ही सुन्दर काव्य के रचनाकार थे , उनके छन्द और रसों का प्रयोग उन्हें साहित्य में भी विशिष्ठ स्थान दिलाता है।
(आगे आने वाली सारी पोस्ट की मुख्यतः पाठ्य सामग्री हैं : काश्मीर शैव दर्शन , मूल सिद्धांत, कैलाश पति मिश्र )
Monday, March 11, 2024
त्वदीयं वस्तु गोविन्दम् तुभ्यमेव समर्पय!
त्वदीयं वस्तु गोविन्दम् तुभ्यमेव समर्पय!
लगता है मानो जीवन विशाल सागर की भाँति है जिसमें क्षितिज का आभास तो है परन्तु किनारों का अभाव है इसी कारण उसके गर्भ में सदा ही काम , क्रोध , लोभ तथा मोह आदि विकारों की लहरें उठती रहती हैं तथा अनायास ही विध्वंस के लिए तत्पर रहती हैं | इन विनाशकारी लहरों पर विजय प्राप्त किए बिना ईश्वर के प्रति स्वयं को समर्पित समझना , समर्पण जैसे भाव के प्रति अज्ञानता है!
जहाँ सम्पूर्ण त्याग है वहीं समर्पण है |
प्रभु, इस सांसारिक जीव का मुक्ति की ओर बढ़ते पथ पर मिल जाए तुम्हारा आलंबन!
Sunday, March 10, 2024
भक्तवत्सल राम : जटायु के राम
जटायु ने माँ सीता को बचाने के प्रयास में, रावण के शरीर को चोंच के प्रहार से विदीर्ण कर डाला। इस पर रावण ने क्रोधयुक्त होकर अत्यन्त भयानक कटार निकाली और जटायु के पंख काट डाले। जटायु महाराज धरती पर आ गिरे और पूर्णकाम, आनंद,अजन्मा और अविनाशी ब्रह्म को राम राम राम ऐसा कह कर स्मरण करने लगे।
पूरकनाम राम सुख रासी। मनुजचरित कर अज अबिनासी॥
आगें परा गीधपति देखा। सुमिरत राम चरन जिन्ह रेखा॥
(अरण्यकाण्ड)
भला भक्त कष्ट में हो और दीनदयाल प्रभु उनको अपना आश्रय न दें - ऐसा हो सकता है ?
कोई भी हो, धर्म का काम ही क्यों न हो, दो कामनाएं (दो पक्ष )अधिकतर मन में रहती हैं : या तो धन की या प्रसिद्धि की। जटायु महाराज के दो पंख को इस रूप में भी माना जा सकता हो । जो कोई धर्म के मार्ग पर बिना किसी आकांक्षा के प्रवृत होता है उसे प्रभु अवश्यमेव अपने श्री चरणों में स्थान देते हैं।
कृपा के सागर भगवान, नीलाम्बुजश्यामलकोमलाङ्गं राम अपने कर कमलों से जटायु जी के सर पर हाथ फेरते हैं,
कर सरोज सिर परसेउ कृपासिंधु रघुबीर
(अरण्यकाण्ड)
भक्त के सर पर भगवान का हाथ हो , फिर कहाँ वेदना टिके ?
जटायु जी को मुनियों के मन को भी हर लेने वाले श्री रामजी का मुख देख अपनी पीड़ा का आभास न रहा
निरखि राम छबि धाम मुख बिगत भई सब पीर
(अरण्यकाण्ड)
गिद्ध माँसाहारी होते हैं और पक्षियों में सबसे अधम माने गए हैं।
गीध अधम खग आमिष भोगी
(अरण्यकाण्ड)
परन्तु जटायु जी ने निष्पक्ष होकर स्वधर्म निभाते हुए अपने दोनों पक्षों को त्याग दिया भला इससे ऊपर और क्या बलिदान होता ? भक्त वत्सल करुणामयी भगवान राम ने अपनी गोद में जटायु जी को समेट लिया। जिस गति की अभिलाषा योगी करते हैं वह आज गिद्ध महाराज जटायु जी को मिल रही थी ,
कोमल चित अति दीनदयाला। कारन बिनु रघुनाथ कृपाला॥
गीध अधम खग आमिष भोगी। गति दीन्ही जो जाचत जोगी॥
(अरण्यकाण्ड)
राम परम दयालु हैं अपने कमलनयन से झरते अश्रुओं से गोद में जटायु जी के घावों को सहलाया, जटायु जी के ऊपर धूल को अपनी जटाओं से साफ किया।
गीध को गोद उठाये दयानिधि
बारिद लोचन मैं बर भारी
हाथ से पंख संभारत जात
जटायु की धूरि जटाओं से झारी।।
भगवान राम कोमल हृदय हैं और जटायु जी से कहते हैं कि आप अपना शरीर बना के रखिये
राम कहा तनु राखहु ताता। मुख मुसुकाइ कही तेहिं बाता
(अरण्यकाण्ड)
तब जटायु जी प्रत्युत्तर देते हैं मरते समय जिनका नाम मुख में आ जाने से अधम भी मुक्त हो जाता है
जाकर नाम मरत मुख आवा। अधमउ मुकुत होइ श्रुति गावा
(अरण्यकाण्ड)
वह कहते हैं अब इस से ऊपर और क्या कामना हो जिसके लिए यह देह रहे ?
सो मम लोचन गोचर आगें। राखौं देह नाथ केहि खाँगें॥
भगवान भक्तों से प्रेम करते हैं भला उनको अपने धाम ले जाए बिना उन्हें चैन कहाँ ? और कृपा सिंधु राम कहते हैं जिनके मन में दूसरे का हित बसता है, उनके लिए जगत् में कुछ भी (कोई भी गति) दुर्लभ नहीं है। हे तात! शरीर छोड़कर आप मेरे परम धाम में जाइए। मैं आपको क्या दूँ? आप तो सब कुछ पा चुके हैं
रहित बस जिन्ह के मन माहीं। तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं॥
तनु तिज तात जाहु मम धामा। देउँ काह तुम्ह पूरनकामा॥
(अरण्यकाण्ड)
और जटायु जी भगवान राम की गोद में अखंड भक्ति का वर माँगकर अपना प्राण त्याग देते हैं और प्रभु राम उनके अंत्येष्टि करते हैं ? यह हैं भक्त वत्सल राम
बिरल भगति मागि बर गीध गयउ हरिधाम।
तेहि की क्रिया जथोचित निज कर कीन्ही राम।।
(अरण्यकाण्ड)
और जैसा भगवान कृष्ण ने भगवद गीता में कहा
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् |
य: प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशय: ||
(भगवद गीता)
अंत काल में जटायु जी ने सिर्फ एक राम नाम का आलम्बन लिया और परम गति पायी , भगवान के आश्रय में जटायु ने गिद्ध का देह त्याग दिया| हरि का रूप धारण कर अनुपम वस्त्र और आभूषण से सुशोभित हो कर परमधाम को प्रस्थान कर गए
गीध देह तजि धरि हरि रूपा। भूषन बहु पट पीत अनूपा॥
स्याम गात बिसाल भुज चारी। अस्तुति करत नयन भरि बारी॥
(अरण्यकाण्ड)
कलियुग में केवल नाम ही आधार है, आइये राम नाम की महिमा गाते हैं
शिव जी पार्वती से कहते हैं कि वे लोग अभागे हैं, जो भगवान् को छोड़कर विषयों से अनुराग करते हैं।
सुनहू उमा ते लोग अभागी। हरि तजि होहिं बिषय अनुरागी।
तुलसीदास जी सत्य ही कहा है कि जो राम नाम का सहारा लिए बिना ही परमार्थ और मोक्ष की आशा करता है, वह तो मानो बरसते हुए बादल की बूँदों को पकड़कर आकाश में चढ़ना चाहता है (अर्थात् जैसे वर्षा की बूँदों को पकड़कर आकाश पर चढ़ना असंभव है, वैसे ही राम नाम का जप किए बिना परमार्थ की प्राप्ति असंभव है)।
राम नाम अवलंब बिनु, परमारथ की आस।
बरसत बारिद बूँद गहि, चाहत चढ़न अकास॥
माला लेकर किसी मंत्र-विशेष का जाप करने से तथा मस्तक एवं शरीर के अन्य अंगों पर तिलक-छापा लगाने से तो एक भी काम पूरा नहीं हो सकता, क्योंकि ये सब तो आडंबर मात्र हैं। कच्चे मन वाला तो व्यर्थ ही में नाचता रहता है, उससे राम प्रसन्न नहीं होते। राम तो सच्चे मन से भक्ति करने वाले व्यक्ति पर ही प्रसन्न होते हैं।
जपमाला छापैं तिलक, सरै न एकौ कामु।
मन-काँचे नाचै वृथा, साँचै राँचै रामु॥
हृदय में निर्गुण ब्रह्म का ध्यान, नेत्रों के सामने सगुण स्वरूप की सुंदर झांकी और जीभ से सुंदर राम-नाम का जप करना। तुलसी कहते हैं कि यह ऐसा है मानो सोने की सुंदर डिबिया में मनोहर रत्न सुशोभित हो।
हियँ निर्गुन नयनन्हि सगुन, रसना राम सुनाम।
मनहुँ पुरट संपुट लसत, तुलसी ललित ललाम॥
इति श्री
कितना सही कितना दूर
हमारी स्थिति ऐसी होती है कि जब कोई कहे ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या हमें बहुत रोमांचक लगता है. ऐसा लगा है हम नाव में और भवसागर पार हो रहा है. यह एक उच्चतम गति है कि हम इस भाव में स्थित हो जाएँ :-
सर्वं खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति शान्त उपासीत। अथ खलु क्रतुमयः पुरुषो यथाक्रतुरस्मिल्लोके पुरुषो भवति तथेतः प्रेत्य भवति स क्रतुं कुर्वीत॥
परंतु किसी धार्मिक पुरुषार्थ और बिना वैराग्य के ये मात्र सुंदर वाक्य लगेगा. मानो बिना षट् सम्पति पुष्ठ हुए या किसी शमशान वैराग्य के चपेट में आकर ऐसा सोच हम नाव से उतरें यह सोच कर कि भवसागर पार हो गया तो निश्चित ही हम डूब जायेंगे.
अब लगेगा ये कैसे पार होगा तो भगवान् की शरण में जाएँ और अभ्यास करें और प्रेरित करें खुद को इस संसार की नाश्वरता के प्रति
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् |
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते||
कुमार्गी की पहचान
गरुड़ काकभुसुंडि जी के समक्ष आश्चर्य प्रकट करते हैं कि रावण जो इतना बलशाली है, जिसके डर से सुर असुर सब इतना भयभीत हैं कि न निशा (रात) में सो पाते हैं और न दिन में भरपेट भोजन खा पाते हैं,
जाकें डर सुर असुर डेराहीं। निसि न नीद दिन अन्न न खाहीं
(अरण्यकाण्ड)
उस रावण को वेश बदल कर भगवती सीता का हरण करने के लिए चोर के भांति आना पड़ा। तुलसीदास जी इसको "भड़िहाई" ऐसा लिखते हैं। गरुड़ जी कहते हैं, जैसे कुत्ता सूना देख चुपके से बर्तनों - भांडों में मुँह डालते वक़्त चोर के भांति आस पास डर से देखता और ताकता है, वैसे ही बलशाली दशानन रावण भड़िहाईं (चोरी ) करता हुआ माँ सीता का हरण करने हेतु पंचवटी में प्रवेश करता है।
सो दससीस स्वान की नाईं। इत उत चितइ चला भड़िहाईं
(अरण्यकाण्ड)
राक्षस होते हुए भी जो कुल परम्परा से न केवल ब्राह्मण वरन प्रकांड पंडित था, जिसमें अतुलनीय बल था, जिसने खेल खेल में हीं कुबेर को जीत लिया हो और जिसने अपने बन्दीखाने में लोकपाल तक को कैद कर रखा हो वही रावण जब पंचवटी के पवित्र आश्रम में चौरकर्म करता हुआ श्वान जैसे जान पड़ता हो, इस पर काकभुसुंडि जी , एक कुमार्गी , कुपंथी की मनोदशा का वर्णन करते हैं , जो बहुत ही सटीक है।
वह उत्तर देते है
इमि कुपंथ पग देत खगेसा। रह न तेज तन बुधि बल लेसा
(अरण्यकाण्ड)
अर्थात, जो भी कुमार्ग पर पैर रखते है उसके शरीर का तेज, बुद्धि और बल का लेश मात्रा भी नहीं रहता।
विद्वता , बल चाहे कितना भी हो जब व्यक्ति कुपंथ की और बढ़ता, उसकी प्रवृत्ति स्वयं को जब गर्हित कार्य में नियोजित होती है तब सबसे पहले उसका विवेक नाश हो जाता है। विवेकशून्यता उसे काम , क्रोध, लोभ, मद, मोह और मात्सर्य के अधीन कर देती है और अनिष्ठ को और प्रवृत कर देती हैं, चाहे फिर विद्वान दशानन रावण ही क्यों न हो ? देखो कैसे दसकंधर रावण को उनका ही छोटा भाई कुंभकर्ण बिलखकर बोलता है - अरे मूर्ख! जगज्जननी जानकी को हर लाकर अब कल्याण चाहता है?
सुनि दसकंधर बचन तब कुंभकरन बिलखान।
जगदंबा हरि आनि अब सठ चाहत कल्यान॥
(लङ्काकांड)
रावण के आगे एक अदना सा राम दूत अंगद भी, अतुलित बलशाली रावण को अपमानित कर देता है ,
रे त्रियचोर कुमारग गामी। खल मल रासि मंदमति कामी
(लङ्काकांड)
इस सब का अर्थ यह हुआ कि मार्यादा के विपरीत कुमार्ग पर रखा एक कदम भी अन्तःत नाश की और ले जाता है इसलिए हमें हमेशा प्रभु के स्मरण कर नीति और सदाचार का आश्रय और आलम्बन लेना चाहिए। यश मानव जीवन की विभूति है।इसे क्यों गवांए?
इति श्री
Friday, March 8, 2024
भरत चरित्र - १
विरह भक्ति की प्रतिष्ठा है, भक्त जब अपने प्रियतम भगवान की प्रतीक्षा में जो आंसू बहाता है वही है पराकाष्ठा भक्ति की।
मीरा बाई के पदों में प्रभु से अलगाव की व्यथा, वियोग में भक्त की स्थिति स्पष्ठ कर देता है।
मीरा कहती हैं :दर्शन के बिना आँखें दुखने लगी हैं। मेरे प्रिय! जबसे तुम बिछुड़े हो, कभी चैन नहीं मिला। तुम्हारा नाम सुनकर दिल काँप उठता है और फ़रियाद मीठी लगती है। टकटकी बाँधे तुम्हारी राह देख रही हूँ। वियोग की रात सबसे लंबी होती है। मेरी सजनी! आख़िर विरह का दु:ख किसको सुनाऊँ? मीरा के प्रभु कब मिलोगे? कब दु:ख मिटाओगे और कब सुख दोगे!
दरस बिन दूखन लागे नैन।
जब तें तुम बिछुरे पिव प्यारे, कबहुँ न पायो चैन॥
सबद सुनत मेरी छतियाँ काँपै, मीठे लागें बैन।
एक टकटकी पंथ निहारूँ भई छंमासी रैन॥
बिरह बिथा कासों कहुँ सजनी, बह गई करवत ऐन।
मीरां के प्रभु कबहो मिलोगे, दुःख मेटन सुख दैन॥
(मीरा माधव)
विरह अंत: करण का विशुद्ध भाव है। विह्वल हृदय का क्रंदन सदा निर्मल और करुण होता है। अपने आराध्य से विरह की तड़प क्या न करवा देती है , यह भरत के शब्दों से ज्ञात हो जाता है। जब भरत जी को भान होता है कि राम सीता और लक्ष्मण संग १४ वर्ष के वनवास पर चले गए। उनको विश्वास न हुआ, मानो उनका सारा शरीर निर्जीव हो गया। जब चेतना लौटी, व्यथित हो जमीन पर गिरे और माँ कैकेयी को बहुत कठोर शब्दों से धिक्कार दिया :
जननी मैं न जीऊँ बिन राम,
राम लखन सिया वन को सिधाये गमन,
पिता राउ गये सुर धाम,
जननी मैं न जीऊँ बिन राम।
कुटिल कुबुद्धि कैकेय नंदिनि,
बसिये न वाके ग्राम,
जननी मैं न जीऊँ बिन राम।।
(विनय पत्रिका)
श्री भरत जी राम विरह भक्ति के परम आचार्य हैं।भागवत में जो गोपियों का भाव है, बिल्कुल वही श्री भरत जी का है।
जहाँ गोपियों ने उद्धव को भ्रमर कह कटाक्ष किया वहीं भरत राम वियोग में बेसुद्ध हो अपनी जननी को भला बुरा कह देते हैं।
भक्त अपने प्रभु की भक्ति में सदैव एकाकार रहता है, उनका अलगाव उसे उद्विग्न कर देता है , भला शब्दों की सीमा कहाँ बांधेगी इस असीम विरह वेदना को।
जो राम ने ठुकरा दिया वह भला भरत कहाँ स्वीकारते। अपने आराध्य से दूरी भरत को कहाँ रास आती। बिना रथ पर आरूढ़ हो जब नंगे पैर भरत राम से मिले, तब उनके कोमल पैर में छाले हो गए। यह छाले उनके चरणों में कैसे चमकते हैं, जैसे कमल की कली पर ओस की बूँदें चमकती हों।
झलका झलकत पायन्ह कैसें। पंकज कोस ओस कन जैसें॥
भरत पयादेहिं आए आजू। भयउ दुखित सुनि सकल समाजू॥
भला इससे सुन्दर और क्या अभिव्यक्ति होगी प्रेम की। आराध्य के प्रति निश्छल, अनन्य, निस्वार्थ और प्रगाढ़ प्रेम इससे अधिक और क्या होगा ?
प्रेम अमृत है, विरह मंदराचल पर्वत है, भरतजी गहरे समुद्र हैं। कृपा के समुद्र श्री रामचन्द्रजी ने देवता और साधुओं के हित के लिए स्वयं (इस भरत रूपी गहरे समुद्र को अपने विरह रूपी मंदराचल से) मथकर यह प्रेम रूपी अमृत प्रकट किया है॥
प्रेम अमिअ मंदरु बिरहु भरत पयोधि गँभीर।
मथि प्रकटेउ सुर साधु हित कृपासिंधु रघुबीर।।