स्पर्श की भाषा
कितनी अनमोल है न, यह स्पर्श की भाषा ,
लोरियों, थपकियों से गुंजित ममता की भाषा ।
माँ के स्नेह भरी गोद में ,
देखो , एक नन्ही सी जान ,
यूँ तो ,धरती पर है वह नया ही मेहमान
मोह क्या ,अभिमान क्या ,राग क्या द्वेष क्या ,
निर्लिप्त वह ,दुनियादारी व रिश्तों से अनजान ,
हर बंधन से परे ,ममत्व के घेरे में सहज शिशु ,
उसके आँचल ,को ही समझे ,सारा जहान ।
उसके हाथ को ,अपने ,नन्हे हाथ से ,छू,
लगे उसे जैसे प्रसरित होता जीवन का विहान ।
कोमल सा है यह अबोध ,न है उसे अभी चाहे कोई ज्ञान,
पर माँ के ह्रदय के स्पंदन से नहीं है अनजान,
सांसारिकता से अनभिज्ञ पर
अचरच नहीं कि ,माँ को पहचाने ,
इस काया ने सींचा खून से नौ मास ,
हर सांस ,को आधा बाँट फूंका ,
मास के लोथड़े में प्राण ।
नौ मास ,ओढ़ी ,माँ की हर आशा निराशा
माँ के हर दर्द का ,हर ख़ुशी का साझा वह।
लोरियाँ में हो सकता ,है ,कुछ शब्दों का आभास नया ,
पर नहीं है यह ,आवाज़ नई ,न ही है राग नया ।
अपनी जननी के हर स्पर्श ,
कुछ हाथों का ,
छाती से चिपकाए ,
कुछ गले का ,
कुछ कपोल का स्पर्श ,
प्रेम से चूमते ,
उन नाज़ुक होठों का स्पर्श ,
है नया यह सब कुछ ,
पर हो रही है नयी पहचान,
खुद को समेटे गोद में होता
शिशु को सुरक्षा का भान ।
जो ज्ञानी न समझा पाए ,
जो निर्लिप्त -निर्मोही न समझा पाएं ,
माँ से सहज ही सीख लिया ,
ऐसे निःस्वार्थ प्रेम का ज्ञान ।
निंदिया की ओढ़ चदरिया ,सुंदर सपनों में खोता
सिमट माँ ,की गोद में ,हर क्षण ,अपनत्व के बीज बोता ।
कितनी अनमोल है न यह ,स्पर्श की भाषा ,
माँ की हर सांस,उसके ,हर रोम रोम की भाषा ,
स्पृहय थपकी और अस्पृहय स्पंदन की भाषा ,
लोरियों के गुनगुनाहट की मीठी सी भाषा ।
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