" तुम्हें पता है , शायद ,सब से ज़्यादा बेबस कौन होता है "
"हम्म्म
शायद कसाई के आगे खड़ा पशु !"
"शायद ,हां ,पर फिर भी ,उसे एक धूमिल आस होती हो .....
कसाई का हृदय पसीजने की आस "
"शायद नदी के बीच खड़ा वह अकेला पेड़ ,
जीवन से लड़ता ,मृत्यु को हराता ,
पर शायद अपनी नियति जानता हो...
के एक थपेड़ा भी उसको बहा ले जाएगा ..... "
"या शायद उसी पेड़ पे बैठी एक माँ ,
जिसके बच्चों के पर न हों ......
और उनको अपने ममता के आँचल में टूटा धीरज बंधाती "
"शायद हाँ पर ,ममता ,कितनी भी बेबस हो हार नहीं मानती
शायद वह बारिश के मध्य ,बीच नदी में वह पेड़ बेबस हो ,
ममता का संघर्ष बेबस न होगा...
"वह उसकी आँखों में
उसके ह्रदय तक झाँकता हुआ सा बोला "
"ह्म्म्म
फिर ? "
"शायद तुम समझ पाओ या शायद ना भी ,
पर मेरे हृदय में रह रह के यह भाव आ रहा है ,
की इस जर्जर काया ने तुम्हारी आत्मा ओढ़ ली हो जैसे
काया तो काया ही है......
माया है यह तो ,
पर समय से हारती इस काया ने , न जाने कब यह चादर ओढ़ ली.....
पता है पहले सोचती थी मृत्यु को लपेट लूंगी ,
ज्यों ही थामेगी ,"
पर अब लगता है ,
एक प्रेम पाश है , मृत्यु को कह रहा है ,
रुक जाओ .....
इस घने कोहरे में दो जिस्मों का एक अनकहा संवाद स्पंदित हो रहा है....
शायद इस घने कोहरे में एक जर्जर काया की टूटती आस और एक टूटते संन्यास के मध्य एक संवाद घटित होने वाला हो
पता है सबसे बेबस कौन होता है
शायद वक़्त से हारता आदमी
वक़्त से हारती आस
वक़्त से पहले टूटता अधूरा सा संवाद .........
"हम्म्म
शायद कसाई के आगे खड़ा पशु !"
"शायद ,हां ,पर फिर भी ,उसे एक धूमिल आस होती हो .....
कसाई का हृदय पसीजने की आस "
"शायद नदी के बीच खड़ा वह अकेला पेड़ ,
जीवन से लड़ता ,मृत्यु को हराता ,
पर शायद अपनी नियति जानता हो...
के एक थपेड़ा भी उसको बहा ले जाएगा ..... "
"या शायद उसी पेड़ पे बैठी एक माँ ,
जिसके बच्चों के पर न हों ......
और उनको अपने ममता के आँचल में टूटा धीरज बंधाती "
"शायद हाँ पर ,ममता ,कितनी भी बेबस हो हार नहीं मानती
शायद वह बारिश के मध्य ,बीच नदी में वह पेड़ बेबस हो ,
ममता का संघर्ष बेबस न होगा...
"वह उसकी आँखों में
उसके ह्रदय तक झाँकता हुआ सा बोला "
"ह्म्म्म
फिर ? "
"शायद तुम समझ पाओ या शायद ना भी ,
पर मेरे हृदय में रह रह के यह भाव आ रहा है ,
की इस जर्जर काया ने तुम्हारी आत्मा ओढ़ ली हो जैसे
काया तो काया ही है......
माया है यह तो ,
पर समय से हारती इस काया ने , न जाने कब यह चादर ओढ़ ली.....
पता है पहले सोचती थी मृत्यु को लपेट लूंगी ,
ज्यों ही थामेगी ,"
पर अब लगता है ,
एक प्रेम पाश है , मृत्यु को कह रहा है ,
रुक जाओ .....
इस घने कोहरे में दो जिस्मों का एक अनकहा संवाद स्पंदित हो रहा है....
शायद इस घने कोहरे में एक जर्जर काया की टूटती आस और एक टूटते संन्यास के मध्य एक संवाद घटित होने वाला हो
पता है सबसे बेबस कौन होता है
शायद वक़्त से हारता आदमी
वक़्त से हारती आस
वक़्त से पहले टूटता अधूरा सा संवाद .........
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