Saturday, March 16, 2024

सूर परिचय -१





 राधा रानी वृंदावन की अधिष्ठात्री देवी हैं | श्री राधा भगवान कृष्ण की आह्लादिनी शक्ति हैं | उन्हें प्रेम की देवी कहा जाता है। ब्रज भूमि की आत्मा के रूप में ब्रजवासी उन्हें प्यार करते हैं |राधा की महिमा को बताते हुए ब्रज के संत कहते हैं कि, "कोटिन रूप धरे नंदनंदन, तो भी न पायो पार" |श्री राधा और कृष्ण एक ही तत्व के दो रूप हैं | ब्रज भूमि संतों की, रसिकों की, कवियों की भूमि हैं।  अष्टछाप कवियों में सभी एक से बड़ कर एक हैं परन्तु सूरदास जी एक विशेष ही स्थान है ! सूर सगुन भक्ति और राधा कृष्णा उपासना के पुरोधा हैं।  सूर दास जी वल्लभाचार्य जी के पुष्टिमार्गी संत थे।  प्रेमतत्व और वियोग वेदना से भरे उनके पद मानो तीर जैसे लगते हैं चेतना पर। 
एक बार तानसेन जी ने कहा कि जब किसी  तड़पते हुए व्यक्ति को देखता हूँ, तो लगता है कि शायद इसे किसी शूर (योद्धा) का बाण लग गया है अथवा इसे उदर-सूर (शूल) की बीमारी हो गई है या फिर निश्चित ही सूर का कोई पद इसके लग गया है। इसी कारण यह व्यक्ति तड़प रहा है।

किधौं  सूर  कौ  सर लग्यौ,  किधौं सूर की पीर ।
किधौं सूर को  पद लग्यौ,  तन मन धुनत सरीर ।। 

वल्लभाचार्य जी विशुद्ध अद्वैत और पुष्टिमार्गी सम्प्रदाय के संस्थापक थे।  सूर दास पहले काफी दास्य भाव में पद लिखते थे। वल्लभाचार्य से पुष्टिमार्ग में दीक्षित होने के बाद उन्होंने वात्सल्य माधुर्य और विरह  को बहुत ही भावपूर्ण रूप में प्रस्तुत किया। गुरु की महिमा अनुपम  होती है वल्लभाचार्य के सान्निध्य में दास्य भाव को सख्य भाव में लिखने लगे।  कृष्ण की माखनचोरी हो या गोचारण हो यह उनकी नटखट बाल लीलाएं   , सूरदास ने अपने पदों से मानों सब जीवंत कर दिया।  उनको पढ़के ऐसा प्रतीत होता है मानो सूर साक्षी रूप में सदा कृष्ण के साथ रहे हों।  
राधा कृष्णा प्रसंग में कृष्ण को परमब्रह्म मान और राधा  उनकी माया इस रूप में मान कर उन्होंने बहुत ही सुन्दर काव्य पिरोये।  माया -ब्रह्म की अलौकिक क्रीड़ा को उनसे अधिक भक्तिपूर्ण तरीके से कोई और समझा पाया भला ? 
सूरदासजी को भक्तिमार्ग का सूर्य कहा जाता है। जिस प्रकार सूर्य एक ही है और अपने प्रकाश और उष्मा से संसार को जीवन प्रदान करता है उसी तरह सूरदासजी ने अपनी भक्ति रचनाओं से मनुष्यों में भक्तिभाव का संचार किया। सूरदासजी जन्मांध थे परन्तु मन की आंखों से भगवान् के श्रृंगार और लीलाओं के दर्शन की उनकी अनोखी सिद्धि थी। 

सूरदास जी के जीवन से एक प्रसंग बहुत ही मार्मिक है।  सूरदास नवनीत प्रिय का दर्शन करने गोकुल जाते थे और श्रृंगार का ज्यों-का त्यों वर्णन कर दिया करते थे। एक बार गोसाईं विठलनाथ के पुत्र गोकुलनाथ ने परीक्षा लेनी चाही और कान्हा को मात्र मोतियों की माला ही पहनाई और कोई श्रृंगार और वस्त्र न पहनाया। जो कृष्ण का भक्त हो उसे कहाँ , किन्ही आखों की ज़रूरत जिनके मर्म में हो कन्हैया लाल ऐसे सूरदास जी ने तुरंत लिख दिया : 

देखे री हरि नंगम नंगा।
जलसुत भूषन अंग बिराजत, बसन हीन छबि उठत तरंगा।।
अंग अंग प्रति अमित माधुरी, निरखि लजित रति कोटि अनंगा।
किलकत दधिसुत मुख ले मन भरि, सूर हँसत ब्रज जुवतिन संगा।।
.देखे री हरि नंगम नंगा।


 
 
 

 

Friday, March 15, 2024

शैव अद्वैत भूमिका - ६ (जीवन्मुक्ति)


 


अद्वैतवादी मानते हैं कि जीवन्मुक्त की अवस्था आने के पश्चात व्यक्ति केवल प्रारब्ध के कर्म क्षय तक संसार में जीता है।  न कोई रूचि न लगाव न कोई सांसारिक प्रयोजन होता है।  उसमें कोई क्रिया नहीं होती वह सांसरिक निष्क्रिय हो जाता है। काश्मीर वेदांती मानते हैं कि जीवनमुक्ति पूर्ण सक्रियता की अवस्था है।  काश्मीर मत में क्रिया या स्पन्द आत्मिक है सो जीवन्मुक्त होने का अर्थ स्वाभाविक रूप से क्रियाशील हो जाना है।  वह सांसारिक कार्य करता है , पर लीला कार्य या स्पन्द कार्य है जैसे।  

काश्मीर मत कि ये विशेषता है कि आत्मा प्राप्ति या जीवनमुक्ति के उपरान्त भी आत्मा (जिसकी प्राप्ति जीवनमुक्ति के बाद हुई ) जगत से कटती (isolate) नहीं वरन जगत में समाहित होती हो जाती है।  जीवन मुक्त व्यक्ति जान लेता है सब में मैं और मुझमें सब हैं और सारा संसार मेरा ही वैभव है।  ईश्वरप्रत्यभिज्ञा दर्शिनी में अभिनवगुप्त कहते हैं : 

सर्वो ममायं विभव इत्येवं परिजानतः ।

विश्वात्मनो विकल्पानां प्रसरेऽपि महेशता॥


जीवन्मुक्त सारे संसार में एकत्व समझता है।  पूर्णतः विश्वप्रेम में रहता है।  जगत बंधन नहीं  बल्कि जगत को अपने से भिन्न समझना बंधन है। 

जीवन्मुक्त व्यक्ति  संसार के भोगों को भी अपने स्वरुप के लीला विलास के रूप में लेता है।  वह संसारिक भोगों में भी अपने स्वरुप को ही भोगता है।  जगत का आनंद उसका स्वरूपानंद का ही स्फुरण है।  भोगों को जब कामना की पूर्ति या स्वार्थपूर्ण प्राप्ति के लिए करते हैं तब बंधन है और जब भोग आनंद के स्पन्द के रूप में हो तब बंधन नहीं करता वरन आनंद उदात्त होता है।  भोग बंधन नहीं अपितु स्वार्थ और अहंकार है।  तंत्र इसे सूर्य और अग्नि  के दृष्टांत से समझाया गया है।  जैसे सूर्य सारी गन्दगी सोखकर भी और अग्नि सारी गंदगी जलाकर भी दूषित नहीं होते उसी प्रकार एक योगी ( जीवन्मुक्त) सभी भोगों को भोग कर भी पाप से निर्लिप्त रहता है: 


सर्वशोषी यथा सूर्यः सर्वभोगी यथाSनल:। 

योगी भुक्त्वाखिलान् भोगान् तथा पापैर्न लिप्यते।। 


(कुलार्णव तंत्र)  

Thursday, March 14, 2024

शैव अद्वैत भूमिका - ४ (प्रत्यभिज्ञा)




 जीवन और जगत के लिए कार्य खिलवाड़ (लीला ) है तो उसमें सार्थकता नष्ट नहीं हो जाती है ?   कोई काम भी ठीक से नहीं हो पायेगा।  

आइये इसको ऐसे समझते हैं : 

अगर आनंद से सारे काम किये जाएँ तो वे कुशलता से संपन्न हो जाते हैं क्योंकि आत्मा में व्याप्त क्रिया शक्ति निर्बाध हो जाती है | वहीं तनाव में काम में अवरोध (inhibition) होता है | जब कोई सृजन आनंद से स्पंदित ( when it evolves with spontaneity) होता है तब रचना बहुत सुंदर लगती है वहीं जब चेतना पर जोर ( strain) से कार्य या रचना करें तो उस सृजन में सुंदरता नहीं जान पड़ती | अवतार या जीवन्मुक्त बड़े बड़े कार्य कुशलता से इसलिए कर पाते हैं क्योंकि वे आनंद की स्थिति में लीला करते हैं | सो वहाँ स्पंद् सहसा प्रतीत होता है | लीलाधर योग की सहज समाधि की स्थिति में रहते हैं | इस स्थिति में किये गए कार्य आनंद क्रीडन होते हैं और पूर्णतया सक्षम होते हैं | योगेश्वर कृष्ण ने पूरी गीता सहज समाधि में कही |

अब विचार आता है अगर सृष्टि शिव का आनंद क्रीडन है तो सांसारिक दुख और पाप क्या हैं? क्या शिव इनके लिए उत्तरदायी हैं ? 

इसे फुटबॉल के खेल के दृष्टान्त से समझते हैं।  खेल का प्रवर्तन इस भाव से हुआ कि सारे खिलाड़ी आनंद से खेलें और कोई गड़बड़ी न करें। परन्तु सब रोबोट तो नहीं सबका इच्छा स्वातंत्र्य है।  अगर कोई इस इच्छा स्वातंत्र्य के अधीन हो कर फ़ाउल करता है तो रेफ़री रेड कार्ड या येलो कार्ड दिखा कर दण्डित करता है।  

उसी प्रकार यह सृष्टि का खेल शिव ने चलाया है उसमें अन्य खिलाडियों ( जीव ) को उन्होंने लगा रखा है।  ऐसा कह सकते हैं कि जीवों में कुछ हद तक इच्छा स्वातंत्र्य है अन्यथा उसका स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त ही हो जाएगा।  शिव नहीं चाहते कि कोई अपराध करे पर जीव इच्छा स्वातंत्र्य के अधीन गलत कर्म करते हैं जिसके फल स्वरुप उन्हें दंड भी मिलता है।  


शिव ने जीवों के सुधार के लिए और सृष्टि खेल को समुचित रूप से चलाने के लिए कर्म नियम के अनुसार दंड विधान को भी लागू किया है और यह भी सृष्टि खेल का ही अंग है।  


क्रिया काश्मीर शैव दर्शन का मूल सिध्दांत है तो प्रत्यभिज्ञा उसका मूल लक्ष्य।  आगम परिचय कराते हैं कि हम शिव ही हैं , बस मलावरण  के कारण हम अपना स्वरुप भूल ही जाते हैं। मलावरण हटते ही अपनी स्वयं की वास्तविक पहचान हो जाती है।  इसे ही प्रत्यभिज्ञा कहा जाता है। यह समझना होगा कि मलावरण अज्ञान मूलक है तथापि आत्मप्राप्ति ज्ञान से ही होगी।  


"हम हैं" यह तो सपष्ट है ! कर्त्ता और ज्ञाता के रूप में हमारी सत्ता स्वतः सिद्ध है , सभी ज्ञान और क्रिया के रूप में हम पहले से ही हैं , हम आदिसिद्ध हैं परन्तु हम अपना वास्तविक परिचय भूल गए हैं ! अभिनवगुप्त ने ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी में यही बताया है कि : 


कर्तरि ज्ञातरि स्वात्मन्यादिसिद्धे महेश्वरे ।

अजडात्मा निषेधं वा सिद्धिं वा विदधीत कः ॥


किन्तु माया के अधीन होने से स्वयं का दर्शन ( प्रत्यभिज्ञा) नहीं हो पाती। शक्ति प्रदर्शन के माध्यम से ही ये प्रत्यभिज्ञा जान पड़ती है । 


किं तु मोहवशादस्मिन्दृष्टेऽप्यनुपलक्षिते।

शक्त्याविष्करणेनेयं प्रत्यभिज्ञोपदर्श्यते॥


यहाँ उल्लेखनीय है कि तंत्र शास्त्र में पौरुष अज्ञान ( पौरुष ज्ञान ) और बौद्ध अज्ञान ( बौद्ध ज्ञान) में भेद है। समस्त भारतीय दर्शन का प्रायः ये मत रहा है कि ज्ञान मुक्ति का और अज्ञान बंधन का कारक है।  परन्तु ज्ञान बौद्धिक ( intellect) समझ नहीं होती।  इस हिसाब से बौद्धिक जानकारी से मोक्ष न  मिल जाए  ? और शास्त्र ज्ञान से मुक्ति ? 


तंत्र में इसे समझने के लिए पौरुष ज्ञान की अवधारणा मिलती है।  ज्ञान केवल बौद्धिक नहीं , बौद्धिक ज्ञान बौद्धिक अज्ञान दूर कर सकता है।   परन्तु वह अज्ञान जो हमारी प्रत्यभिज्ञा में बाधक है , स्वरुप समझने में अवरोध है वह बौद्धिक अज्ञान नहीं वरन आध्यात्मिक मल है।  आध्यात्मिक मल ने ही समूचे पुरुष को जकड़ रखा है , यही पौरुष अज्ञान है : जिसकी निवृत्ति साधना से होती है।  अर्थात् साधना से जो आध्यात्मिक प्रकाश   उत्पन्न होता है वही पौरुष ज्ञान है।  अतः मूल समस्या पौरुष अज्ञान है।