Wednesday, April 1, 2020

सुमन

सुमन

मैंने ईश्वर से पूछा इक रात , निष्ठुर है क्यों तेरा न्याय 
निर्जन हुआ बसंत , बिना  'सुमन' कैसे हम बताएं ?
प्रेम करुणा सरलता की थी  'सुमन '  पर्याय ,
कुछ बातें अधूरी रह  गयीं ,कैसे कहाँ पहुंचाएं ?

अब  अधूरे शब्द हैं कुछ ,निर्वात सा  पसरा है मौन ,
स्नेह, ममत्व, निश्छल  प्रेम की धारा बहाये  कौन ?

कुछ निष्प्राण  शब्दों को पिरो कविता बनाये कौन ,
जो सुनता था , उल्लास से , अब है  वहां कैद मौन ?

करुण क्रंदन ,न प्रार्थना का है कोई न्याय ,
कर्म बड़ा ,या ,प्रारब्ध  बड़ा कोई यह  बतलाये 

तर्क वितर्क के बीच  ,सहसा मुस्काती माँ दिखी , 
आभा फैली मन में ,बही पवन स्नेहिल स्पर्श सी 

है प्रेम इतना प्रगाढ़ बोली ,लौटेंगे फिर रंग ,
'सुमन' बन फिर  लौट आउंगी मैं तुम्हारे अंक | 


Sunday, May 19, 2019

The Study - My School !

ईंटो  क़े ढाँचे से रिश्ता है पुराना ,
नादान ख्वाहिशों का शहर था अनजाना ।

पापा की उँगलियों को छोड़ लांघी जब इसकी दहलीज़।
छोटे से हाथों से थामी टीचर की कमीज़ ।

अनजानों की दुनिया लगी थी तब ,
कुछ नन्हे से औरों को देखा था  जब ।

यूँ सीमित था , तब रिश्तों का ज्ञान ,
ये अनजाने बनेंगे अपने ,नहीं था भान ।

जाने कब यारी ली सीख हमने ,
हंसी- ठहाकों से बातें लगी जमने ।

टीचर की डांट लगा करती  थी बुरी ,
कोमल सा मन फिर भी नहीं बनाता था दूरी ।

टीचर के मन जगह बनाना ,
उनके स्नेह के काबिल बन जाना ।

जब कोई कह देता था बातें चुभने वाली ,
रूठ के बैठ जाया करते थे खाली ।

फिर हंसी में,  रूठे मन में बहार आ जाना ,
घुल मिल के सबमें,फिर  खुश हो जाना ।

सोचता हूँ भूल आया हूँ खुद को उस गैलरी में,
जहाँ हँसा था मेरा बचपन ,
 जहाँ कैशोर  ने  झाँका था मुझ में ।

एक दूर मैदान में छोड़ आया खून पसीने के बूँद
सोचता हूँ कभी समेट आऊँ उस मिट्टी को जहाँ छोड़ आया सब कुछ....




















Saturday, June 17, 2017

पिता

आकाश सा विस्तृत होता ,वात्सल्य पिता का ।
जीवन के संघर्षों से लड़ ,फिर मुसकाता,जीवट पिता का ।
पेड़ की छाँव  सा ,प्रेमाश्रय पिता का ।
रात को जागकर ,चादर ओढ़ाता ,अनुराग पिता का ।

सब का सहारा बन ,मुस्कुराता ,श्रम पिता का ।
धूप में रहकर ,एक ,आशियां का ख्वाब सजाता  ,प्यार पिता का ।
भूखा होकर ,एक रोटी ,भी ,आधी -आधी करता वात्सल्य पिता का ।
हर रोज़ सुबह , पीठ पर थपथपाता  ,स्नेह पिता का ।

ऊँगली पकड़ कर ,स्कूल  छोड़ आता ,जिगरा पिता का ,
फिर चुपके से देख ,आंसू छुपाता , प्यार पिता का ।
पहली साइकिल की सवारी, होती दिलेरी पिता की ।
डगमगाते ,पर गिरने न देती ,चेतना पिता की ।

कभी ठोकर खा भी जाएँ , तब , राहत सा आगोश पिता का ।
कभी पीठ ,कभी गोद ,में गुनगुनाता प्यार पिता का ।
कभी कठोर कभी नर्म ,धूप -छाँव सा प्यार पिता का ।
सौम्य  मर्म को न दिखलाए ,ऐसा अद्भुत , स्नेह  पिता का ।।




Sunday, November 13, 2016

संवाद

" तुम्हें पता है , शायद ,सब से ज़्यादा बेबस कौन होता है "

"हम्म्म
शायद कसाई के आगे खड़ा पशु !"

"शायद ,हां ,पर फिर भी ,उसे एक धूमिल आस होती हो .....
कसाई का हृदय पसीजने की आस "

"शायद नदी के बीच खड़ा वह अकेला पेड़ ,
जीवन से लड़ता ,मृत्यु को हराता  ,
पर शायद अपनी नियति जानता हो...
के एक थपेड़ा भी उसको बहा ले जाएगा ..... "

"या शायद उसी पेड़ पे बैठी एक माँ ,
जिसके बच्चों के पर न हों ......
और उनको अपने ममता के आँचल में  टूटा  धीरज बंधाती "

"शायद हाँ पर ,ममता ,कितनी भी बेबस हो हार नहीं मानती
शायद वह बारिश के मध्य ,बीच नदी में वह पेड़ बेबस हो ,
ममता का संघर्ष बेबस न होगा...

 "वह उसकी आँखों में
उसके ह्रदय तक झाँकता हुआ सा बोला "
"ह्म्म्म
फिर ? "

 "शायद तुम समझ पाओ या शायद ना भी ,
पर  मेरे हृदय में रह रह के यह भाव आ रहा है ,
की इस जर्जर काया ने तुम्हारी आत्मा ओढ़ ली हो जैसे
काया तो काया ही है......
माया है यह तो ,
पर समय से हारती इस काया ने , न जाने कब यह चादर ओढ़ ली.....
पता है पहले सोचती थी मृत्यु को लपेट लूंगी  ,
ज्यों ही थामेगी ,"

पर अब लगता है ,
एक प्रेम पाश है , मृत्यु को कह रहा है ,
रुक जाओ .....


इस घने कोहरे में  दो जिस्मों का एक अनकहा संवाद स्पंदित हो रहा है....

शायद इस घने कोहरे में  एक जर्जर काया की टूटती आस और एक टूटते  संन्यास के मध्य एक संवाद घटित होने वाला हो


पता है सबसे बेबस कौन होता है


शायद वक़्त से हारता आदमी
वक़्त से हारती आस
वक़्त से पहले टूटता अधूरा सा  संवाद   .........








अपना अपना आसमान


ज़िन्दगी में हर  किसी का अपना अपना आसमान
हर कोई अपने ज़ुनून ,की कह रहा है दास्तान ,
ज़िन्दगी की  ,तल्खियाँ ,और हर तरफ खामोशियाँ
दिल को घायल कर गयी हैं ,बढ़ गयी  बेचैनियाँ ,
ज़ख़्म ऐ दिल तो भर गए ,न  मिट सके उनके निशाँ
अपना अपना आसमान  ………………


Friday, July 31, 2015

He could Have.....




He could have ....Yes He could have stopped his car ,stepped down , and clearing the crowd of many, he could have reached to his love ..The love he lost seven years back, the love whom he writes daily addictively .Love is a narcotic ,it slowly spreads through heart into the blood, into the veins and renders you restless ....Love that knocked the doors of their hearts seven years back. Love which was all ready to fill the hollowness of their lives with the sweetest melody ..They thought they will forget each other ..but love remains always ,It may not knock but it remains there at the doorsteps ,Love resides in memories . It finds ways to get expressed .Love never disappears......
~He could Have.....
(A Boy Loves A Girl Part -2 )

Thursday, January 29, 2015

स्पर्श की भाषा




स्पर्श  की भाषा

कितनी अनमोल है न, यह स्पर्श  की  भाषा ,
लोरियों, थपकियों से गुंजित ममता की भाषा ।

माँ के स्नेह भरी गोद में ,
देखो , एक नन्ही सी जान ,

 यूँ तो ,धरती पर  है वह नया ही  मेहमान
मोह क्या ,अभिमान क्या ,राग क्या द्वेष  क्या ,
निर्लिप्त वह ,दुनियादारी व  रिश्तों से अनजान ,
हर बंधन से परे ,ममत्व के  घेरे  में सहज शिशु ,
उसके आँचल  ,को  ही समझे ,सारा जहान ।

उसके हाथ को ,अपने ,नन्हे हाथ से ,छू,
लगे उसे जैसे प्रसरित होता जीवन का  विहान ।
कोमल सा है यह अबोध ,न है उसे अभी चाहे कोई ज्ञान,
पर  माँ के ह्रदय के स्पंदन से नहीं है अनजान,

सांसारिकता से अनभिज्ञ पर
अचरच  नहीं  कि ,माँ को पहचाने ,
इस काया ने सींचा खून से नौ मास ,
हर सांस ,को आधा बाँट फूंका ,
मास के लोथड़े में प्राण ।
नौ मास ,ओढ़ी ,माँ की हर आशा निराशा

माँ के हर दर्द का ,हर ख़ुशी का साझा वह।
लोरियाँ में हो सकता ,है ,कुछ शब्दों  का आभास नया ,
पर नहीं है यह ,आवाज़ नई ,न ही है राग नया ।

अपनी जननी के  हर स्पर्श ,
कुछ हाथों का ,
छाती से चिपकाए ,
कुछ गले का ,
कुछ कपोल का स्पर्श ,
प्रेम से चूमते ,
उन नाज़ुक होठों का स्पर्श ,
है नया यह सब कुछ ,
पर हो रही है नयी पहचान,
खुद को समेटे गोद में होता
शिशु को  सुरक्षा का भान ।

जो ज्ञानी न समझा पाए ,
जो निर्लिप्त -निर्मोही न समझा पाएं ,
माँ से  सहज ही सीख लिया ,
 ऐसे  निःस्वार्थ प्रेम का ज्ञान ।


निंदिया की ओढ़ चदरिया ,सुंदर सपनों में खोता
सिमट माँ ,की गोद में ,हर क्षण ,अपनत्व के बीज बोता ।

कितनी अनमोल है न यह ,स्पर्श की भाषा ,
माँ की हर सांस,उसके ,हर रोम रोम की भाषा ,
स्पृहय थपकी और अस्पृहय स्पंदन की भाषा ,
 लोरियों के गुनगुनाहट की मीठी सी भाषा ।